प्रशांत की पोस्ट "प्रेम करने वाली लड़की जिसके पास एक डायरी थी" पढकर सहसा मन मे आया कि वाकई हर लड़की के पास एक ऐसी लिखी-अनलिखी डायरी ज़रूर होती है जिसे वह अपने प्रेमी-पति-निकटस्थ से छिपाती है।यूँ यह व्यक्तिगत स्पेस का मामला माना जा सकता है क्योंकि यह कतई ज़रूरी नही कि हर व्यक्ति अपनी डायरी को सार्वजनिक करना,या कम से कम कुछ दोस्तो के साथ बांटना ही चाहे।यह उसका अपना इलाका है और मनोविज्ञान की माने तो मानव मन की कई ऐसी परते हैं जिसके बारे मे वह खुद भी बहुत नही जानता तो दूसरे तो क्या ही जानेंगे।मै क्या और कितना बताना चाहती हूँ यह तय करना मेरा अधिकार है ,सही है।
लेकिन बात मै कहीं और भी ले जाना चाह्ती हूँ।
चूँकि "डायरी" हिन्दी लेखन की एक अलग विधा है सो इतना तो तय है कि किसी व्यक्ति की नितांत निजी अभिव्यक्तियों में कुछ ऐसा ज़रूर है जो डायरी लेखन को एक विधा का दर्जा दिलाता है।बाहर की दुनिया में देखे गए ,भोगे गए अनुभवों की कोई व्यक्ति कैसी व्याख्या करता है और उस व्याख्या मे उसके अपने जीवन के भोगे गए ,देखे गए यथार्थ क्या भूमिका अदा करते हैं यह जानना बहुत दिलचस्प हो सकता है।और अक्सर उपयोगी !
वह डायरी जहाँ कोई लड़की अपने राज़ छिपाती है वह अप्रत्यक्षत: उसके समाज ,उसके परिवेश,उसके समय और उसकी मन:स्थिति की आलोचना के लिए पुष्ट आधार बन सकते हैं।ठीक वैसे ही जैसे सपना की डायरी या आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व लिखी गयी दुखिनी बाला की जीवनी।
अब मै यह सोचती हूँ कि हम जब खुद को छिपाना चाहते हैं तो उसके पीछे की मानसिकता क्या है ? क्या हम एक विशिष्ट छवि को बरकरार रखना चाहते हैं? और नितांत निजी डायरी शायद दुनिया की नज़रों मे आपको पतनशील ,बागी , बेवफा ,बे ईमान ,कायर ,पागल या ऐसा कुछ लेबल दिलवा सकती है जिसके कारण आपकी बनाई छवि , अपेक्षित छवि टूट सकती है और आपका सीधा सपाट चलता खुशहाल(जो शायद प्रतीत ही होता है)जीवन नष्ट हो सकता है।
ऐसे मे भी मुझे लगता है कि बाहरी दबाव डायरी लिखने और फिर उसे छिपाने के पीछे काम करते हैं , ऐसा कतई नही है कि कोई व्यक्ति चूँकि एक निरपेक्ष जीव है इसलिए वह यह प्राइवेसी चाहता है।इस मायने मे पर्सनल जो भी है वह दर असल पॉलीटिकल है।
इस या उस ब्लॉग पर लिखते हुए भी किसी का दिमाग यदि सावधान दिमाग है तो वह खुद ब खुद शब्दों,वाक्यों,घटनाओं मे एक ऐसा फिल्टर लगा देगा कि जो सामने आए वह वही हो जो वह चाहता है कि आए।शायद कुछ मानक हैं ,कुछ मापदण्ड जिसके अनुसार हम अपनी हर एक पोस्ट सम्पादित करते हैं और वही दिखाते हैं जो दिखाना ठीक हो मानको के अनुरूप।ये मानक कौन तय करता है? समाज !
लेकिन मानव मन की यह चालाकी क्या हर बार काम करती है ? कहीं न कहीं लाइनों के बीच का अनलिखा दिख जाता है और ताड़ने वाला दिमाग उस महत्वपूर्ण अनलिखे को समझ कर नृतत्वशास्त्र ,समाज्रशास्त्र,साहित्यशास्त्र,सबॉल्टर्न इतिहास जैसे महत्वपूर्ण ज्ञान शाखाओं के लिए अमूल्य अवदान दे जाता है।
मै सचमुच चाहती हूँ कि प्रेम करने वाली उस लड़की की डायरी मै पढ सकूँ और जान सकूँ कि वह सरल लड़की कैसे बनाई गयी थी,खुद को छिपाना उसे कैसे सिखाया गया था ,उसकी सामाजिक कंडीशनिंग किस तरह हुई थी और प्रेम को लेकर उसकी अवधारणा अपनी थी या समाज की दी हुई?जो भी हो मै उम्मीद करना चाहती हूँ कि प्रेम करने वाली लड़की अपने परिवेश परिवार और समाज के दबावों से मुक्त होकर प्रेम करे और उसकी डायरी सामाजिक लर्निंग के विखण्डन की प्रक्रिया की ओर उसे ले जाए ..इस तरह से डायरी लिख लिख कर छिपाने की उसे ज़रूरत न रह जाए और कभी अचानक हाथ लग जाने पर उसकी डायरी सपना की डायरी की तरह सन्न ,अवाक कर देने वाली न हो।
Tuesday, January 20, 2009
Friday, January 9, 2009
अस्तित्व की आत्मा है गन्ध
फिल्मों की समीक्षा कभी लिखी नही इसलिए ऐसा कोई अनुभव नही है (फिल्म समीक्षा यह है भी नही)पर आम भारतीय नागरिक होने के नाते आस-पास ,परिवार,राजनीति,कल्चर,इतिहास सभी पर छींटाकशी करने की अपनी भी कुछ आदत है ही :-)आप इसे व्यंग्य समझ सकते हैं पर यह सच बात है।
खैर ,
आज की चिट्ठाचर्चा की शुरुआत मे एक फिल्म का ज़िक्र किया था मैने।"पर्फ्यूम : द स्टोरी ऑफ़् अ मर्डरर" जो साल 2006 मे आई थी।मूल रूप से यह फिल्म पैट्रिक ससकिंड के जर्मन मे लिखे गए उपन्यास "डास पर्फ्यूम"(1985)पर आधारित है।अठाहरवी शताब्दी के फ्रांस मे जन्मा जॉन बप्टीस ग्रैनुली जिसके पास सूँघने की अद्वितीय शक्ति है मछली बाज़ार मे मछली बेचने वाली एक स्त्री की पाँचवी संतान है जिसे अपनी अन्य संतानो की तरह माँ बाज़ार के बच जन्मते ही अपने शरीर से अलग कर देती है मरने के लिए और वापस खड़ी हो जाती है मछली खरीदने आए ग्राहकों के सामने।लेकिन वह बालक रो उठता है और आस पास वाले जान जाते है ,माँ को फाँसी पर लटकाया जाता है हत्या के जुर्म मे और ग्रेनुली अनाथालय भेजा जाता है।आठ नौ वर्ष की अवस्था मे उसे एक दास के रूप मे बेच दिया जाता है। इसी दासत्व के दौरान तरुण होने पर उसे काम के सिलसिले मे एक पर्फ्यूमर बाल्दिनि के घर जाने का मौका मिलता है।यहीं बाल्दिनी को उसकी अनोखी घ्राण शक्ति का पता चलता है और बाल्दिनि की शागिर्दी मे ग्रेनुली दुनिया की बेहतरीन सेंट बनाता है।लेकिन अब भी उसकी मुश्किल है कि इंसान की गन्ध को कैसे सुरक्षित किया जा सकता है।और खूबसूरती को संजोने के लिए उसकी गन्ध को सहेज लेना ही सबसे अच्छा तरीका है ताकि वह कभी न मरे ।उसे वह लड़की नही भूलती जिसका पीछा वह उसके बदन से आती एक विचित्र खुशबू के कारण करता है और अनचाहे ही उस की जान ले लेता है।उसे अपने आस पास के मानवीय शरीरों की गन्ध एक दूसरे से अलहदा साफ पता चलती है।
इसी बेचैनी मे एक गुफा मे सात साल के एकांतवास के बाद उसे अहसास होता है कि जहाँ हर इंसान के बदन मे एक गन्ध बसती है जो उनके अस्तित्व का प्रमाण है वहीं उसका अपना शरीर नितांत गन्धरहित है।
अपने मास्टर बाल्दीनी के बताए एक ऐसे पर्फ्यूम को बनाना सीखने के लिए वह ग्रास Grasse की ओर निकल पड़ता है जिसे सूँघते ही मनुष्यों को अहसास हो कि वे स्वर्ग मे हैं और सभी के मन मे सात्विक , पवित्र भावनाएँ भर जाएँ।इस सेंट के लिए वह एक के बाद एक 25 कुमारी लड़कियों की क्रूरता से हत्या करता है और उनके बालों सहित पूरे शरीर की गन्ध को उनकी को निचोड- लेता है।अंतत: शहर के कोतवाल की खूबसूरत बेटी लौरा के बदन की गन्ध मिलाकर एक ज़रा से शीशी मे जो सेंट तैयार होता है उसे वह अपने पकड़े जाने के बाद सारे शहर के बीच ऊंचे मंच पर जल्लाद के सामने जब खोलता है और सिर्फ एक बूँद रुमाल पर रखकर उड़ा देता है ..तो आस पास सब बदल जाता है ..कसाई पैरों पर गिरकर उसे एंजल कहता है ,बिशप सहित शहर के सभी लोग रात भर प्यार ,स्नेह और मानवीय भावनाओं मे डूबे हिप्नोटाइज़ से रह जाते हैं।
उधर ग्रेनुली अपनी जन्म स्थली पर वापस जाता है और कसाइयों मच्छीमारों के हिंसक ,अशिक्षित ,अमानवीय लोगों के झुँड के बीच वह शीशी खुद पर ही डाल लेता है। देखते ही देखते इनसानो का वह झुँड उसे इस कदर लिपटता है कि अनतत: कुछ नही बचता।
फिल्म एक थ्रिलिन्ग , भयमिश्रित , रहस्यमयी प्रभाव छोडती है। एक फिल्म के रूप मे बहुत प्रभावी है। माना जाता है कि उपन्यास के मुकाबले उसे कम क्रूर दिखाया गया है। कुल मिलाकर फिल्म शॉकिंग है।
यदि उपन्यासकार की दृष्टि से देखा जाए तो यह मुझे ज़्यादा डराने वाली बात थी कि उपन्यास मे थ्रिल्ल , सनसनी , शॉक के प्रभाव को अतिशय बनाने के लिए खूबसूरत , वर्जिन लडकियों की सीरियल मर्डर की योजना बनाई गयी है। यूँ हैरान नही होना चाहिये क्योंकि कवाँरी लड़कियों के महत्व के साथ साथ इस तरह की अमानवीयता संसार भर की सभ्यताओं की विशेषता है। और यूँ भी यह इस विचार की अच्छी पोषक है कि मानवीय गुण और मानवीय सम्वेदों को प्रभावित करने वाली गन्ध केवल फीमेल मे होती है।शायद ब्यूटी,स्त्री,और सात्विकता को पर्याय बना दिया गया है।
एक दूसरी बात जो मुझे समझ नही आती वह है फिल्म का ऐतिहासिक सन्दर्भ ।क्या यह कथा काल्पनिक है ? या इस तरह का कोई प्रमाण हमें अठाहरवीं शताब्दी के फ्रांस मे मिलता है?जैसा कि विकिपीडिया -इसे इतिहास और साहित्य का हाइब्रिड कह्ता है।
जो भी है उपन्यास पढना वाकई एक अलग अनुभव होगा जब फिल्म ही तरह तरह की गन्धों का जीवंत अह्सास करवा देने मे सक्षम है तो उपन्यासकार की इस बेस्ट सेलर को पढना और भी रोमांचकारी होगा।
फिलहाल यूट्यूब पर से एक क्लिपिंग दे रही हूँ -
खैर ,
आज की चिट्ठाचर्चा की शुरुआत मे एक फिल्म का ज़िक्र किया था मैने।"पर्फ्यूम : द स्टोरी ऑफ़् अ मर्डरर" जो साल 2006 मे आई थी।मूल रूप से यह फिल्म पैट्रिक ससकिंड के जर्मन मे लिखे गए उपन्यास "डास पर्फ्यूम"(1985)पर आधारित है।अठाहरवी शताब्दी के फ्रांस मे जन्मा जॉन बप्टीस ग्रैनुली जिसके पास सूँघने की अद्वितीय शक्ति है मछली बाज़ार मे मछली बेचने वाली एक स्त्री की पाँचवी संतान है जिसे अपनी अन्य संतानो की तरह माँ बाज़ार के बच जन्मते ही अपने शरीर से अलग कर देती है मरने के लिए और वापस खड़ी हो जाती है मछली खरीदने आए ग्राहकों के सामने।लेकिन वह बालक रो उठता है और आस पास वाले जान जाते है ,माँ को फाँसी पर लटकाया जाता है हत्या के जुर्म मे और ग्रेनुली अनाथालय भेजा जाता है।आठ नौ वर्ष की अवस्था मे उसे एक दास के रूप मे बेच दिया जाता है। इसी दासत्व के दौरान तरुण होने पर उसे काम के सिलसिले मे एक पर्फ्यूमर बाल्दिनि के घर जाने का मौका मिलता है।यहीं बाल्दिनी को उसकी अनोखी घ्राण शक्ति का पता चलता है और बाल्दिनि की शागिर्दी मे ग्रेनुली दुनिया की बेहतरीन सेंट बनाता है।लेकिन अब भी उसकी मुश्किल है कि इंसान की गन्ध को कैसे सुरक्षित किया जा सकता है।और खूबसूरती को संजोने के लिए उसकी गन्ध को सहेज लेना ही सबसे अच्छा तरीका है ताकि वह कभी न मरे ।उसे वह लड़की नही भूलती जिसका पीछा वह उसके बदन से आती एक विचित्र खुशबू के कारण करता है और अनचाहे ही उस की जान ले लेता है।उसे अपने आस पास के मानवीय शरीरों की गन्ध एक दूसरे से अलहदा साफ पता चलती है।
इसी बेचैनी मे एक गुफा मे सात साल के एकांतवास के बाद उसे अहसास होता है कि जहाँ हर इंसान के बदन मे एक गन्ध बसती है जो उनके अस्तित्व का प्रमाण है वहीं उसका अपना शरीर नितांत गन्धरहित है।
अपने मास्टर बाल्दीनी के बताए एक ऐसे पर्फ्यूम को बनाना सीखने के लिए वह ग्रास Grasse की ओर निकल पड़ता है जिसे सूँघते ही मनुष्यों को अहसास हो कि वे स्वर्ग मे हैं और सभी के मन मे सात्विक , पवित्र भावनाएँ भर जाएँ।इस सेंट के लिए वह एक के बाद एक 25 कुमारी लड़कियों की क्रूरता से हत्या करता है और उनके बालों सहित पूरे शरीर की गन्ध को उनकी को निचोड- लेता है।अंतत: शहर के कोतवाल की खूबसूरत बेटी लौरा के बदन की गन्ध मिलाकर एक ज़रा से शीशी मे जो सेंट तैयार होता है उसे वह अपने पकड़े जाने के बाद सारे शहर के बीच ऊंचे मंच पर जल्लाद के सामने जब खोलता है और सिर्फ एक बूँद रुमाल पर रखकर उड़ा देता है ..तो आस पास सब बदल जाता है ..कसाई पैरों पर गिरकर उसे एंजल कहता है ,बिशप सहित शहर के सभी लोग रात भर प्यार ,स्नेह और मानवीय भावनाओं मे डूबे हिप्नोटाइज़ से रह जाते हैं।
उधर ग्रेनुली अपनी जन्म स्थली पर वापस जाता है और कसाइयों मच्छीमारों के हिंसक ,अशिक्षित ,अमानवीय लोगों के झुँड के बीच वह शीशी खुद पर ही डाल लेता है। देखते ही देखते इनसानो का वह झुँड उसे इस कदर लिपटता है कि अनतत: कुछ नही बचता।
फिल्म एक थ्रिलिन्ग , भयमिश्रित , रहस्यमयी प्रभाव छोडती है। एक फिल्म के रूप मे बहुत प्रभावी है। माना जाता है कि उपन्यास के मुकाबले उसे कम क्रूर दिखाया गया है। कुल मिलाकर फिल्म शॉकिंग है।
यदि उपन्यासकार की दृष्टि से देखा जाए तो यह मुझे ज़्यादा डराने वाली बात थी कि उपन्यास मे थ्रिल्ल , सनसनी , शॉक के प्रभाव को अतिशय बनाने के लिए खूबसूरत , वर्जिन लडकियों की सीरियल मर्डर की योजना बनाई गयी है। यूँ हैरान नही होना चाहिये क्योंकि कवाँरी लड़कियों के महत्व के साथ साथ इस तरह की अमानवीयता संसार भर की सभ्यताओं की विशेषता है। और यूँ भी यह इस विचार की अच्छी पोषक है कि मानवीय गुण और मानवीय सम्वेदों को प्रभावित करने वाली गन्ध केवल फीमेल मे होती है।शायद ब्यूटी,स्त्री,और सात्विकता को पर्याय बना दिया गया है।
एक दूसरी बात जो मुझे समझ नही आती वह है फिल्म का ऐतिहासिक सन्दर्भ ।क्या यह कथा काल्पनिक है ? या इस तरह का कोई प्रमाण हमें अठाहरवीं शताब्दी के फ्रांस मे मिलता है?जैसा कि विकिपीडिया -इसे इतिहास और साहित्य का हाइब्रिड कह्ता है।
जो भी है उपन्यास पढना वाकई एक अलग अनुभव होगा जब फिल्म ही तरह तरह की गन्धों का जीवंत अह्सास करवा देने मे सक्षम है तो उपन्यासकार की इस बेस्ट सेलर को पढना और भी रोमांचकारी होगा।
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Wednesday, October 22, 2008
आप भी लुत्फ लीजिये न ..बहस वहस जो भी...व्हाटेवर ... हो उसे छोड़िये !
"कोई फर्क नही अलबत्ता" या कि आज के कुछेक खाते-पीते युवाओं की बेलौस वाणी की तर्ज़ पर कन्धे उचका कर मुँह बिचका कर कहें "whatever !!" ...बहुत बार इस रवैये के साथ कुछ लोग किसी गम्भीर बह्स में कूद जाते हैं और अपने दो चार जाति भाइयों के साथ मिलकर ठिठोली का विषय बना लेते हैं सारे मुद्दे को । उस पर अगर बहस किसी ऐसे मुद्दे पर हो जिसमें स्त्री की अस्मिता, मुक्ति या परम्परागत छवि के बरक्स नवीन छवि की बात उठती हो ,स्त्री को प्रभावित करने वाले कानूनी संशोधनों की बात हो तो बहस की आग मे हाथ तापने वाले "व्हाटेवर" वाले बेखयाल , बेपरवाह लोग निरंतर परम्परा और संसकृति की दुहाई देते हैं और तर्क के बदले "भावनाओ को समझने की बात भी करते हैं " और उस पर तुर्रा यह कि सामने वाला अतार्किक है ।भाई हम तार्किक हैं तभी शायद भावनाओं से आगे जाकर सोच रहे हैं,इसलिए भावनाएँ तो आप ही समझें कृपया !
हम बड़े आराम से यह मुद्दा किसी मंच से उठा सकते थे पर क्या करें कि औरों को तो फर्क नही पड़ता होगा अपन को पड़ता है जब बहस व्यक्तियों के नामों के सहारे शीर्षक बना बना कर हिट्स लेने वाली मानसिकता से शिथिल और हास्यास्पद हो जाती है।"...वालियों" को बदनाम करने मे मेरा भी पूरा हाथ होगा ही , इसलिए जब बात अपन के नाम से होने लगी है तो अच्छा है कि मंच का दुरुपयोग न करके मै अपने ब्लॉग से आवाज़ बुलन्द करूँ !18 अक्तूबर की बात और हम अब जाग रहे हैं तो भई क्या करें दुनियावी मानुषों की तरह अपने के जीवन के भी कुछ पचड़े हैं ही रोटी पानी कमाने के , सो तब देखा नही , और ऐसे हितैषी भी नही है ब्लॉगजगत मे अपने कि तुरंत फोन की घण्टी घुमा दें -कि भई आपकी पोस्ट या कमेंट से बवाल हुआ ...आप जल्द जवाब दें ....{अच्छा ही है कि हमारा साबका समझदारों और सयाने ब्लॉगरों से है}
जिनकी सोच किसी खास दायरे मे कैद हो वे बहस नही केवल कुतर्क ..या कहें प्रलाप कर सकते हैं ,और जो अपने तर्क {?} के समर्थन में गवाहों को पेश करने लगे तो अपन को बिलकुल भी सन्देह नहीं कि यह .....वालियों का भय है और खाली दिमाग वाली कहावत चरितार्थ हो रही है ....और कविता मे कहें तो यह सोच कुछ ऐसी है कि ---
हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है ,
सूरत बदले न बदले
ब्लॉग हिट होना ही चाहिये
...
व्यक्तिगत हमले बाज़ी न माना जाए इसलिए अपन ने लिंक नहीं दिये हैं ,ब्लॉगजगत मे बेशक दो चार मूढ होंगे ही पर बाकी बहुत समझ दार भी हैं सो वे लिंक स्वयम खोज लेंगे ।जिन खोजाँ तिन .....
और जब आप भी लुत्फ ही उठा रहे थे "....वालियों" को उकसा कर ,नाम ले लेके आमंत्रित कर कर के तो अपना उद्देश्य भी कोई फर्क नही अलबत्ता वाले अन्दाज़ मे मज़े लेने का हो आया है जी :-) सो यह पोस्ट नमूदार हुई है आपकी जानिब ।
आप सब सुधीजन मज़े लें क्योंकि हिन्दी ब्लॉगजगत हो या हिन्दी पत्रकार या बाकी हिन्दी वाले सब अबही तक टुच्चेपन मे ब्रह्मानन्द खोज रहे हैं ।सो ये हमरी ओर से टुच्चेपन के महायज्ञ मे एक छोटी सी अतार्किक आहुति !
हम बड़े आराम से यह मुद्दा किसी मंच से उठा सकते थे पर क्या करें कि औरों को तो फर्क नही पड़ता होगा अपन को पड़ता है जब बहस व्यक्तियों के नामों के सहारे शीर्षक बना बना कर हिट्स लेने वाली मानसिकता से शिथिल और हास्यास्पद हो जाती है।"...वालियों" को बदनाम करने मे मेरा भी पूरा हाथ होगा ही , इसलिए जब बात अपन के नाम से होने लगी है तो अच्छा है कि मंच का दुरुपयोग न करके मै अपने ब्लॉग से आवाज़ बुलन्द करूँ !18 अक्तूबर की बात और हम अब जाग रहे हैं तो भई क्या करें दुनियावी मानुषों की तरह अपने के जीवन के भी कुछ पचड़े हैं ही रोटी पानी कमाने के , सो तब देखा नही , और ऐसे हितैषी भी नही है ब्लॉगजगत मे अपने कि तुरंत फोन की घण्टी घुमा दें -कि भई आपकी पोस्ट या कमेंट से बवाल हुआ ...आप जल्द जवाब दें ....{अच्छा ही है कि हमारा साबका समझदारों और सयाने ब्लॉगरों से है}
जिनकी सोच किसी खास दायरे मे कैद हो वे बहस नही केवल कुतर्क ..या कहें प्रलाप कर सकते हैं ,और जो अपने तर्क {?} के समर्थन में गवाहों को पेश करने लगे तो अपन को बिलकुल भी सन्देह नहीं कि यह .....वालियों का भय है और खाली दिमाग वाली कहावत चरितार्थ हो रही है ....और कविता मे कहें तो यह सोच कुछ ऐसी है कि ---
हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है ,
सूरत बदले न बदले
ब्लॉग हिट होना ही चाहिये
...
व्यक्तिगत हमले बाज़ी न माना जाए इसलिए अपन ने लिंक नहीं दिये हैं ,ब्लॉगजगत मे बेशक दो चार मूढ होंगे ही पर बाकी बहुत समझ दार भी हैं सो वे लिंक स्वयम खोज लेंगे ।जिन खोजाँ तिन .....
और जब आप भी लुत्फ ही उठा रहे थे "....वालियों" को उकसा कर ,नाम ले लेके आमंत्रित कर कर के तो अपना उद्देश्य भी कोई फर्क नही अलबत्ता वाले अन्दाज़ मे मज़े लेने का हो आया है जी :-) सो यह पोस्ट नमूदार हुई है आपकी जानिब ।
आप सब सुधीजन मज़े लें क्योंकि हिन्दी ब्लॉगजगत हो या हिन्दी पत्रकार या बाकी हिन्दी वाले सब अबही तक टुच्चेपन मे ब्रह्मानन्द खोज रहे हैं ।सो ये हमरी ओर से टुच्चेपन के महायज्ञ मे एक छोटी सी अतार्किक आहुति !
Friday, September 5, 2008
बचपन के हत्यारे स्कूल
वह 6 साल का नटखट बालक नही जानता था कि “सस्पेंडिड” के मायने क्या होते हैं| स्कूल से सस्पेंशन और वह भी उस काम के लिए जो उसकी उम्र में नीन्द और भूख जैसी ज़रूरत है , स्वभाव है ।इसलिए बहुत सम्भव है उसके लिए “नॉटी”होने की सज़ा स्वरूप मिला स्कूल से 6 दिन का सस्पेंशन अचानक मिली छुट्टियों से कम मज़ेदार न हो। लेकिन उसका यह भोलापन कुठाराघात का शिकार हो गया है और बचपन की मौज मस्ती काफूर हो गयी है। वह स्थान जिसे अब तक परिवार और मन्दिर की तरह एक पवित्र संस्था मानने की परम्परा है ,जहाँ हम अपने बच्चों को मानवीयता, शिष्टाचार और जीने की तमीज़ सीखने भेजते हैं वही स्थान उस बचपन के लिए कितना खतरनाक और अमानवीय हो सकता है इसके साक्षात उदाहरण हम कई बार देख चुके हैं। टैगोर इंटरनेशनल स्कूल के पहली कक्षा के छात्र लव दुआ के साथ जो हुआ वह एक और घण्टी है उस खतरे की जो स्कूलों मे जाने वाली हमारी नन्ही जानों पर आन पड़ा है।
स्कूल में जब बच्चा पहला कदम रखता है तो उसकी आयु मात्र 3 साल होती है ,वह परिवार माँ-दादी –दादा के संरक्षण और दुलार से पहली बार बाहर निकलता है , उसके लिए सारी दुनिया वयस्कों का बनाया एक ऐसा तिलिस्म होती है जिसमें कब कहाँ हाथ रख देने पर कौन सा खज़ाना खुल जाएगा या कब कौन सी दीवार ढह पड़ेगी या ज्वाला मुखी फट पड़ेगा वह नही जानता । उसके लिए खेल , आनंद ,और शरारत के साथ साथ एक सहज प्रश्नाकुल जिज्ञासा के अतिरिक्त और कुछ समझ आने वाला नही होता। ऐसे में जब स्कूल उस नन्हे जीव को भावनात्मक सुरक्षा देने के स्थान पर दुत्कार , प्रताड़ना और उलाहने देता है तो स्कूल का मतलब ही बदल जाता है।वहाँ जाना भय का पर्याय हो जाता है और छुट्टी आनन्द का।
अभी “तारे ज़मीन पर ” जैसी फिल्में बहुत पुरानी नहीं हुईं जिसे सराह सराह कर अभिभावक-शिक्षक थक नही रहे थे। शारीरिक दण्ड जाने कब से स्कूलों मे प्रतिबन्धित
मैं समझने की कोशिश करना चाहती हूँ उस मनस्थिति को ,उस वातावरण को जिसमें अध्यापक एक दरिन्दे मे तब्दील होता है और स्कूल जेलखाने में।प्रबन्धकों का दबाव, कार्यभार की अधिकता, वेतन की कमियाँ वगैरह । लेकिन किसी भी तरह यह बात समझ नही आ रही कि किसी 6 साल के बच्चे का “नटखट” होना असहज , अस्वाभाविक बात कैसे है।क्या बालपन अपराध है ? दिल्ली और एन सी आर के बहुत से मान्यता प्राप्त स्कूल हमारे अधिकांश बच्चों के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। वे न केवल उनके बचपन की हत्या कर रहे हैं वरन उनकी समझ की भी हत्या करके उन्हें वह समझा रहे हैं जो वे समझते हैं कि ठीक है।स्कूल के पहले ही दो-तीन दिनों में नन्हे बच्चे को , जो शिक्षक को अभिभावक से भी बड़ा दर्जा देता है उन्हें समझा दिया जाता है कि तुम मूर्ख हो – कुछ नही जानते – इसलिए चुपचाप सुनना तुम्हारा परम कर्तव्य है।अधिकांश अध्यापक इस समझ के साथ आते हैं कि बच्चा कोरा कागज़ है। शुरुआती दिनों में ही उन पर “स्लो”, “नॉटी”,”सुस्त” “स्मार्ट””डिसलेक्सिक” जैसे लेबल चिपका दिये जाते हैं और बारहवीं कक्षा तक वे अध्यापकों के कवच की तरह काम करते हैं।और हद है कि 12 साल मे बालक की उस प्रवृत्ति मे कोई बदलाव नही होता ।प्रतिस्पर्द्धा की अन्धी दौड़ मे अपने बच्चों को आगे रहने काबिल बनाने के लिए अभिभावक स्कूल के इस व्यवहार से निभाने की भरपूर कोशिश करते हैं।अधिकांश स्थितियों में तो वे इस बात से परिचित भी नही होते कि जो शिक्षण पद्धतियाँ उसके बच्चे के स्कूल में अपनाई जा रही हैं उनमें कहीं गड़बड़ है ।
इसमें कोई शंका नही कि छोटे बच्चे के लिए स्कूल का सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिये कि बच्चे का स्कूल जाने का मन करे लेकिन अफसोस कि उसी को हासिल करने मे स्कूल असफल हैं । इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि स्कूल में पहुँचते ही बच्चे को भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा का आश्वासन मिले और वह भरोसा करना सीखे । गिजुभाई ने प्राथमिक शिक्षा पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘दिवास्वप्न’ क्यों रखा था यह कुछ कुछ अनुमान होने लगा है।दिनदहाड़े ,खुली आँखों से सपना देखने की हिमाकत करना असम्भव को साकार होते देखने के बराबर है।प्राथमिक शिक्षा को लेकर वे जैसे सम्वेदनशील थे वह अध्यापकों,अभिभावकों व स्कूल प्रबन्धनों के लिए मिसाल होना चाहिये ।पर अफसोस कि शिक्षा जगत प्राथमिक शिक्षा में बच्चे के प्रति सम्वेदनशील होना शायद कभी नही सीख पाया। शिक्षक-प्रशिक्षण के विभिन्न कोर्सों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे अध्यापकों को बालमन और बाल प्रवृत्तियों को समझना ही नही सिखा पा रहे।वे नही सिखा पा रहे कि नटखट होना बच्चे का स्वभाव है, नैसर्गिक प्रवृत्ति है।वे उन्हें पहले दिन से ही प्रौढ बना देना चाहते हैं।
स्कूलों को पहले दिन से ही ट्रेंड बच्चे चाहिये जो अपना काम समय पर पूरा करने , टेस्ट में नम्बर लाने , कक्षा मे चुप बैठने, अध्यापक के कहे को पत्थर की लकीर मानने , और अपनी समझ –सहजता-बालपन का त्याग करके इस दोहे का गूढार्थ समझ लें ।6-7 साल का बच्चा बाहर खुले-खिले बड़े मैदान में तितली को उड़ता देख उसे पकड़ने की बजाए श्याम पट्ट पर लिखी पढाई को टीपे ।जब बच्चे का व्यवहार अध्यापक के अनुरूप नही होता तो उसे अनेक तरीकों से हतोत्साहित किया जाता है।ऐसे में लीक से हटकर चलने वाले बच्चे या तो हतोत्सहित और असहाय महसूस करते हैं या बागी हो जाते हैं ; और उनके बागी स्वभाव को स्कूल व अध्यापक तरह तरह के अपराधों की श्रेणी मे रखकर विचित्र प्रकार के दण्ड की व्यवस्था करता है ।
अब तक की हमारी समाजिक -शैक्षिक अधिगम ने यही सिखाया है कि जो बच्चा जितनी जल्दी व्यवस्था से समझौता कर ले ,अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं को छोड़ एक “यूनिफॉर्मिटी” के तहत भीड़ बन जाए ,उतना ही सफल और सुखी होगा ।“खेलोगे कूदोगे होगे खराब..” जैसी कहावतें सुना सुना कर हमें और हमारे बच्चों को ऐसा भीरू,चुप्पीपसन्द ,कायर और रीढविहीन बना दिया गया है कि हम खुद सवाल उठाए बिना स्कूल के कायदों पर चलने लगते हैं। “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” ने घिस-घिस और रट-रट की मानसिकता को बुद्धिमता का पर्याय बना दिया।सवाल उठाने की संस्कृति न हमें मिली , न हमारे बच्चों को मिल रही है। ऐसे में लव दुआ का केस और डराता है कि हर दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजते हुए अनजाने भय से रूह काँपती है कि कहीं हमारे दिल का टुकड़ा कैसी कैसी छींटाकशी , पिटाई ,अपमान , भेदभाव और भेद-भाव को सह रह होगा या ईश्वर न करे किसी दिन जीवन भर के लिए किसी भयंकर मानसिक-शारीरिक क्षति का शिकार न हो जाए।
स्कूल में जब बच्चा पहला कदम रखता है तो उसकी आयु मात्र 3 साल होती है ,वह परिवार माँ-दादी –दादा के संरक्षण और दुलार से पहली बार बाहर निकलता है , उसके लिए सारी दुनिया वयस्कों का बनाया एक ऐसा तिलिस्म होती है जिसमें कब कहाँ हाथ रख देने पर कौन सा खज़ाना खुल जाएगा या कब कौन सी दीवार ढह पड़ेगी या ज्वाला मुखी फट पड़ेगा वह नही जानता । उसके लिए खेल , आनंद ,और शरारत के साथ साथ एक सहज प्रश्नाकुल जिज्ञासा के अतिरिक्त और कुछ समझ आने वाला नही होता। ऐसे में जब स्कूल उस नन्हे जीव को भावनात्मक सुरक्षा देने के स्थान पर दुत्कार , प्रताड़ना और उलाहने देता है तो स्कूल का मतलब ही बदल जाता है।वहाँ जाना भय का पर्याय हो जाता है और छुट्टी आनन्द का।
अभी “तारे ज़मीन पर ” जैसी फिल्में बहुत पुरानी नहीं हुईं जिसे सराह सराह कर अभिभावक-शिक्षक थक नही रहे थे। शारीरिक दण्ड जाने कब से स्कूलों मे प्रतिबन्धित
मैं समझने की कोशिश करना चाहती हूँ उस मनस्थिति को ,उस वातावरण को जिसमें अध्यापक एक दरिन्दे मे तब्दील होता है और स्कूल जेलखाने में।प्रबन्धकों का दबाव, कार्यभार की अधिकता, वेतन की कमियाँ वगैरह । लेकिन किसी भी तरह यह बात समझ नही आ रही कि किसी 6 साल के बच्चे का “नटखट” होना असहज , अस्वाभाविक बात कैसे है।क्या बालपन अपराध है ? दिल्ली और एन सी आर के बहुत से मान्यता प्राप्त स्कूल हमारे अधिकांश बच्चों के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। वे न केवल उनके बचपन की हत्या कर रहे हैं वरन उनकी समझ की भी हत्या करके उन्हें वह समझा रहे हैं जो वे समझते हैं कि ठीक है।स्कूल के पहले ही दो-तीन दिनों में नन्हे बच्चे को , जो शिक्षक को अभिभावक से भी बड़ा दर्जा देता है उन्हें समझा दिया जाता है कि तुम मूर्ख हो – कुछ नही जानते – इसलिए चुपचाप सुनना तुम्हारा परम कर्तव्य है।अधिकांश अध्यापक इस समझ के साथ आते हैं कि बच्चा कोरा कागज़ है। शुरुआती दिनों में ही उन पर “स्लो”, “नॉटी”,”सुस्त” “स्मार्ट””डिसलेक्सिक” जैसे लेबल चिपका दिये जाते हैं और बारहवीं कक्षा तक वे अध्यापकों के कवच की तरह काम करते हैं।और हद है कि 12 साल मे बालक की उस प्रवृत्ति मे कोई बदलाव नही होता ।प्रतिस्पर्द्धा की अन्धी दौड़ मे अपने बच्चों को आगे रहने काबिल बनाने के लिए अभिभावक स्कूल के इस व्यवहार से निभाने की भरपूर कोशिश करते हैं।अधिकांश स्थितियों में तो वे इस बात से परिचित भी नही होते कि जो शिक्षण पद्धतियाँ उसके बच्चे के स्कूल में अपनाई जा रही हैं उनमें कहीं गड़बड़ है ।
इसमें कोई शंका नही कि छोटे बच्चे के लिए स्कूल का सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिये कि बच्चे का स्कूल जाने का मन करे लेकिन अफसोस कि उसी को हासिल करने मे स्कूल असफल हैं । इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि स्कूल में पहुँचते ही बच्चे को भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा का आश्वासन मिले और वह भरोसा करना सीखे । गिजुभाई ने प्राथमिक शिक्षा पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘दिवास्वप्न’ क्यों रखा था यह कुछ कुछ अनुमान होने लगा है।दिनदहाड़े ,खुली आँखों से सपना देखने की हिमाकत करना असम्भव को साकार होते देखने के बराबर है।प्राथमिक शिक्षा को लेकर वे जैसे सम्वेदनशील थे वह अध्यापकों,अभिभावकों व स्कूल प्रबन्धनों के लिए मिसाल होना चाहिये ।पर अफसोस कि शिक्षा जगत प्राथमिक शिक्षा में बच्चे के प्रति सम्वेदनशील होना शायद कभी नही सीख पाया। शिक्षक-प्रशिक्षण के विभिन्न कोर्सों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे अध्यापकों को बालमन और बाल प्रवृत्तियों को समझना ही नही सिखा पा रहे।वे नही सिखा पा रहे कि नटखट होना बच्चे का स्वभाव है, नैसर्गिक प्रवृत्ति है।वे उन्हें पहले दिन से ही प्रौढ बना देना चाहते हैं।
स्कूलों को पहले दिन से ही ट्रेंड बच्चे चाहिये जो अपना काम समय पर पूरा करने , टेस्ट में नम्बर लाने , कक्षा मे चुप बैठने, अध्यापक के कहे को पत्थर की लकीर मानने , और अपनी समझ –सहजता-बालपन का त्याग करके इस दोहे का गूढार्थ समझ लें ।6-7 साल का बच्चा बाहर खुले-खिले बड़े मैदान में तितली को उड़ता देख उसे पकड़ने की बजाए श्याम पट्ट पर लिखी पढाई को टीपे ।जब बच्चे का व्यवहार अध्यापक के अनुरूप नही होता तो उसे अनेक तरीकों से हतोत्साहित किया जाता है।ऐसे में लीक से हटकर चलने वाले बच्चे या तो हतोत्सहित और असहाय महसूस करते हैं या बागी हो जाते हैं ; और उनके बागी स्वभाव को स्कूल व अध्यापक तरह तरह के अपराधों की श्रेणी मे रखकर विचित्र प्रकार के दण्ड की व्यवस्था करता है ।
अब तक की हमारी समाजिक -शैक्षिक अधिगम ने यही सिखाया है कि जो बच्चा जितनी जल्दी व्यवस्था से समझौता कर ले ,अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं को छोड़ एक “यूनिफॉर्मिटी” के तहत भीड़ बन जाए ,उतना ही सफल और सुखी होगा ।“खेलोगे कूदोगे होगे खराब..” जैसी कहावतें सुना सुना कर हमें और हमारे बच्चों को ऐसा भीरू,चुप्पीपसन्द ,कायर और रीढविहीन बना दिया गया है कि हम खुद सवाल उठाए बिना स्कूल के कायदों पर चलने लगते हैं। “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” ने घिस-घिस और रट-रट की मानसिकता को बुद्धिमता का पर्याय बना दिया।सवाल उठाने की संस्कृति न हमें मिली , न हमारे बच्चों को मिल रही है। ऐसे में लव दुआ का केस और डराता है कि हर दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजते हुए अनजाने भय से रूह काँपती है कि कहीं हमारे दिल का टुकड़ा कैसी कैसी छींटाकशी , पिटाई ,अपमान , भेदभाव और भेद-भाव को सह रह होगा या ईश्वर न करे किसी दिन जीवन भर के लिए किसी भयंकर मानसिक-शारीरिक क्षति का शिकार न हो जाए।
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Wednesday, September 3, 2008
आओ बहनो , पहनो बुर्खा

स्त्री जाति हृदयहीन नही है। माँ , बहन ,बेटी,पत्नी,सखी ,साथिन - सभी रूपों में उसने अपने साथी पुरुष को हमेशा सम्बल दिया ,उसके हितों को सर्वोपरि रखा। लेकिन आज के युग मे वह पुरुष पर अत्याचार करने लगी,बलात्कार करने लगी ,कलहकारिणी हो गयी, अर्द्धनग्न हो गयी ,कामिनी बन बन जवान पुरुषों को कामोन्मत्त करने लगीं ऐसा कि वे प्रताड़ित ,शोषित महसूस करने लगे।इतनी अर्द्धनग्न बालाएँ देख आज का जवान {प्रौढ और बूढा भी}अपने मन को कैसे काबू में रखे।खूंटे से बान्धे रहे ?आज तक बन्धा है कभी ? बान्ध लेंगे तो जैसे ही किसी दिन रस्से खुली या टूटी सब्र ढह जाएगा और अनर्थ हो जाएगा। सब इन नारीवादी ,आधुनिकाओं ,नये ज़माने की औरतों के कारण जो अपना तन ठीक से ढंकती नही।
बहनो,
ऐसा अत्याचार देख मेरा मन द्रवित हो रहा है। साड़ी में नाभि दिख जाती है , कमर दिखती है ,पीठ भी दिख जाती है ,ऑफिस में पुरुष कैसे काम करेगा ? बस में बिना चिपके कैसे खड़ा रह सकेगा?
जींस में फिगर दिखती है । कामिनी की कल्पना कर कर साथी पुरुष कैसे काम -पीड़ित हो रह पाएगा?बताइये भला ?क्या आप उन्हें बलात्कार या छेड़खानी की मानसिक ग्लानि से आज़ादी नही दिलवाना चाहतीं ?
ब्लाउस में भी क्लीवेज दिख जाती है ।सलवार-कमीज़ पर दुपट्टा न डालो तो उभरे उरोज़ देख बेचारा पुरुष पटखनियाँ खा खाकर बेहाल हो जाता है।
क्या आप वाकई पुरुष समाज को इतना दुख देना चाहती हैं ?अधिकांश अच्छी बहनें "नहीं" में उत्तर देंगी। और उपाय खोजना चाहेंगी ।
मेरे पास एक बढिया उपाय है । क्यों न हम सभी आज से बुर्खा पहनने का प्रण लें और बढते बलात्कारों और बदतमीज़ियों को होने से रोकें। साथ ही हमारे पुरुष साथियों का भी भला होगा। न नाभि ,पीठ,कमर ,यहँ तक कि चेहरा{कटीले नैन ,रसीले होंठ}दिखेंगे न ही वे मानसिक रूप से बलत्कृत होंगे।
और यूँ भी पुरुषों से अधिक स्त्रियां बलात्कार करती हैं, लेकिन वे मानसिक सतह पर करती हैं इस कारण बच जाती हैं. समाज में जहां भी देखें आज अधनंगी स्त्रियां दिखती हैं. पुरुष की वासना को भडका कर स्त्रियां जिस तरह से उनका मानसिक शोषण करती हैं वह पुरुषों का सामूहिक बलात्कार ही है. किसी जवान पुरुष से पूछ कर देखें. पुरुष को सजा हो जाती है, लेकिन किसी स्त्री को कभी इस मामले में सजा होते आपने देखा है क्या.
हमें अपनी नैतिक ज़िम्मेदारियों को समझना चाहिये। समाज पतन की ओर जा रहा है ।हम उसे बचा सकते हैं।आइये अपने भाइयों , मित्रों , ब्लॉगर बन्धुओं ,पिताओं , दूसरों के पतियों , अपने बेटों को बचायें ।
Wednesday, August 20, 2008
साहित्य अकादमी मे बे-कार जाने का अंजाम

कभी कभी कुछ घटनाएँ या समान्य सी लगने वाली बात-चीत पर भी ज़रा ध्यान दिया जाए तो विचित्र और अक्सर महत्वपूर्ण तथ्य ,अनुभव या समझ प्राप्त होती है।यूँ ही कल हमारे साथ हुआ।सहित्य अकादमी, मण्डी हाउस ,में एक कार्यक्रम के लिए गये थे।विश्विद्यालय के छात्रों के प्रयासों से छपने वाली पत्रिका सामयिक मीमांसा के लोकार्पण का अवसर था।अभी कार्यक्रम ख्त्म नही हुआ था ,पर मुझे जाना था सो मै उठकर चली आयी।गेट के भीतर ही खड़ी मै अपनी एक मित्र की प्रतीक्षा कर रही थी कि गार्ड को न जाने कैसे हमारी फजीहत करने की सूझी।वह कुर्सी से खड़ा हुआ और एक गत्ते से सीट झाड़ता हुआ बोला -"मैडम बैठ जाएँ,गाड़ी आएगी तब आ जाएगी"
मुझे तत्काल कुछ न सूझा ,क्या कहूँ ,मेरे होंठ बस फड़क रहे थे कुछ उगलते नही बन रहा था।अब वह फिर बोला
"बैठिये मैडम , गाड़ी आती होगी "
मैने कहा-"नही ठीक है , आप ही बैठिये"
"हम तो दिन भर बैठते ही हैं मैड्म आप बैठिये खड़ी क्यों रहेंगी जब तक गाड़ी आती है" उसने जिस भी अन्दाज़ मे यह कहा मुझे ऐसा लगा कि मेरा उपहास उड़ाया है।मै लाल-पीली हो रही थी,मन मे आया एक अच्छी सी गाली उस पर पटक के मारूँ । हद है !एक तो गाड़ी , वह भी ड्राइवर वाली !!मैं बस या मेट्रो से नही जा सकती।
तभी गुस्सा काफूर हुआ ,गार्ड की इस बात से एकाएक लगा कि क्या साहित्य अकादमी में ऐसी ही महिलाएँ आती हैं जिनके पास ड्राइवर वाली गाड़ी होती है? मेरे इस अभाव{?}की बात रहने दें तो सोचती हूँ कि साहित्य अकादमी आते जाते रहना अफोर्ड करने के लिए एक खास वर्गीय चरित्र की मांग करता है क्या? वह भी एक स्त्री से ?बहुत सम्भव है कि एक मध्यवर्गीय नौकरीपेशा स्त्री के पास साहित्य अकादमी के लिए न तो वक़्त बचता होगा न ही ज़रूरत। यह बौद्द्धिक अय्याशी वह अफोर्ड नही कर सकती होगी।बौद्द्धिक अय्याशी न भी कहूँ तो यह भटकना , आवारगी उसके लिए कहाँ !!मैं भी तो यही सोच कर भागी थी घर कि 8 बज रहे हैं रात के , कल का दिन चौपट हो जाएगा।बेटे का यूनिट टेस्ट है कल। पति को पढाने को कह तो दिया है पर एक घण्टा और यहाँ रुकने का मतलब है कि खाना आज भी बाहर् से आयेगा।वे भी थके होंगे, अभी घर पहुँचे होंगे ।यहाँ न आती तो दिन भर की थकान उतारने के बाद खाना बनाने के अलावा भी समय बच जाता {ब्लॉगिंग के लिए}।उस पर अभी बाहर सड़क पर जाकर औटो या बस या मेट्रो में धक्के खाने थे।शोफर ड्रिवेन कार !! आह !यह दुनिया मेरे लिए नही है!नही है!मेरे लिए नही है तो ,किसी स्कूल टीचर ,क्लर्क के लिए या किसी भी सर्वहारा के लिए तो कैसे ही हो पाएगी।उस गार्ड के लिए भी नही जो रोज़ वहाँ गेट पर चौकी दारी करता है। इसलिए बौद्धिक अय्याशी है।
फिर एकाएक दूसरी बात सोची , गार्ड ने कहा था -हम तो बैठते ही हैं दिन भर । गार्ड दिन भर बैठता ही है तो .....!खैर , वह गार्ड कितनी तंख्वाह पाता होगा कि दिन भर वह "खड़ा" रहे और मैडमों व सरों को सल्यूट मारे या तमाम तहज़ीब व आदर सहित उन्हें गाड़ी का इंतज़ार बैठ कर करने को कहे।
बहुत साधारण सी बातें और हमारा मन भी उन्हें कहाँ कहाँ ले जाता है।सब ठीक है।सब ऐसा ही है। ऐसा ही चलता रहेगा।क्या सच ?
Thursday, June 26, 2008
जहाँपनाह खुश हुए ......
कभी पढा था जो राष्ट्र विद्वानों ,कलाकारों और साहित्य कारों को सम्मान नही देता उसका पतन नज़दीक होता है ।बहुत सही बात है । आजकल अकादमियाँ , संस्थाएँ ,चयन समितियाँ ,यही करती हैं । राजा-महाराजा युग में इसका तरीका कुछ और था । मैं कल्पना कर रही हूँ किसी दरबारी सीन की। घनानन्द ने छन्द पढा और राजा ने खुश हो कर सोने के सिक्कों की थैली उछाल दी । महाराज प्रसन्न हुए !! या मुगले-आज़म का सीन । अनारकली ने नृत्य पेश किया और बादशाह सलामत ने खुश होकर बेशकीमती हार उछाल दिया ।
कहने को सामंतवाद देश से जा चुका है । लोकतंत्र है । शासक नही हैं हमारे प्रतिनिधि हैं । ऐसे में आप यदि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर हैं और समृद्ध व सम्मानित व्यक्ति हैं और आपको कोई कविता भावविभोर कर जाती है तो आप उस अति भावुक क्षण में क्या करेंगे ?
कवि को गले से लगा लेंगे ?आपकी आंखें नम हो जाएंगी ? अब भी सुनते हैं लता मंगेशकर को 'ए मेरे वतन के लोगों....' गाते सुन पंडित नेहरू की आंखें भीग गयी थीं ।
ऐसा ही भावुक क्षण तब आया जब सुलभ शौचालय की 30 महिला कर्मचारियों का एक दल जो यू एन रवाना होने वाला है , राष्ट्रपति से मिलने पहुँचा और उनमें से एक लक्षमी नन्दा ने अपनी एक कविता 'पतन से उड़ान की तरफ' का पाठ किया । कविता एक महिला सफाई कर्मचारी के उत्थान की बात कहती थी जिसे सुनकर राष्ट्रपति इतनी भावविभोर हुईं कि तत्काल 500 रुपए का नोट निकाल कर लक्ष्मी को थमा दिया ।लक्ष्मी अति प्रसन्न थी । यह उसके लिए एक बेशकीमती नोट था जिसे वह कभी खर्च नही करेगी । निश्चित रूप से वह 500 का नोट एक टोकन था ,कोई बहुत बड़ी राशि नही थी । और लक्ष्मी भी उसे किसी स्मृति चिह्न की तरह ही सम्भाल कर रखेगी । पर मुझे अब भी यह सामंती अदा परेशान कर रही है । राष्ट्रपति उठ कर सफाई कर्मचारी लक्षमी को गले से लगा लेतीं तो उनका सम्मान मेरे मन में कई गुना बढ जाता । पर खुश होकर या भावुकता के क्षण में जब आपके विशिष्ट ,ज़िम्मेदार हाथ जेब से कुछ निकालने को आतुर हो जाएँ तो मेरे लिए यह निश्चित ही -जहाँपनाह खुश हुए ....! वाला सामंती अन्दाज़ ही है ..अखबार जिसे अनबिलीवेबल , हार्ट्वार्मिंग ,ब्रेथ टेकिंग घटना कह रहे हैं ....
कहने को सामंतवाद देश से जा चुका है । लोकतंत्र है । शासक नही हैं हमारे प्रतिनिधि हैं । ऐसे में आप यदि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर हैं और समृद्ध व सम्मानित व्यक्ति हैं और आपको कोई कविता भावविभोर कर जाती है तो आप उस अति भावुक क्षण में क्या करेंगे ?
कवि को गले से लगा लेंगे ?आपकी आंखें नम हो जाएंगी ? अब भी सुनते हैं लता मंगेशकर को 'ए मेरे वतन के लोगों....' गाते सुन पंडित नेहरू की आंखें भीग गयी थीं ।
ऐसा ही भावुक क्षण तब आया जब सुलभ शौचालय की 30 महिला कर्मचारियों का एक दल जो यू एन रवाना होने वाला है , राष्ट्रपति से मिलने पहुँचा और उनमें से एक लक्षमी नन्दा ने अपनी एक कविता 'पतन से उड़ान की तरफ' का पाठ किया । कविता एक महिला सफाई कर्मचारी के उत्थान की बात कहती थी जिसे सुनकर राष्ट्रपति इतनी भावविभोर हुईं कि तत्काल 500 रुपए का नोट निकाल कर लक्ष्मी को थमा दिया ।लक्ष्मी अति प्रसन्न थी । यह उसके लिए एक बेशकीमती नोट था जिसे वह कभी खर्च नही करेगी । निश्चित रूप से वह 500 का नोट एक टोकन था ,कोई बहुत बड़ी राशि नही थी । और लक्ष्मी भी उसे किसी स्मृति चिह्न की तरह ही सम्भाल कर रखेगी । पर मुझे अब भी यह सामंती अदा परेशान कर रही है । राष्ट्रपति उठ कर सफाई कर्मचारी लक्षमी को गले से लगा लेतीं तो उनका सम्मान मेरे मन में कई गुना बढ जाता । पर खुश होकर या भावुकता के क्षण में जब आपके विशिष्ट ,ज़िम्मेदार हाथ जेब से कुछ निकालने को आतुर हो जाएँ तो मेरे लिए यह निश्चित ही -जहाँपनाह खुश हुए ....! वाला सामंती अन्दाज़ ही है ..अखबार जिसे अनबिलीवेबल , हार्ट्वार्मिंग ,ब्रेथ टेकिंग घटना कह रहे हैं ....
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