बहुत कुछ अलग है हर स्त्री में । फिर भी अनुभवों का एक अन्धेरा कोना सभी का एक सा है।इसलिए तो सीमाओं के पार भी एक संसार है जो सीमातीत है ।पाकिस्तानी कवयित्री - किश्वर नाहिद की यह कविता बहुत प्रभावित कर गयी । सोचा क्यो न आप लोगो से इसे बाँटा जाए।
घास भी मेरी तरह है-
पैरों तले बिछ कर ही पूरी होती है
इच्छा इसके जीवन की ।
गीली होने पर, क्या होता है इसका अर्थ?
लज्जित होने की जलन ?
या आग वासना की?
घास भी मेरी तरह है-
जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य
आ पहुँचता है कटाई करने वाला,
उन्मत्त ,बना देने को इसे मुलायम मखमल
और कर देता है इसे चौरस।
इसी तरह मेहनत करते हो तुम
औरत को भी चौरस करने की ।
न तो खिलने की इच्छा पृथ्वी की,
न ही औरत की ,मरती है कभी ।
मेरी बात पर ध्यान तो,वह विचार
रास्ता बनाने का ठीक ही था।
जो लोग सह नही पाते हैं बिगाड
किसी परास्त मन का
वे बन जाते हैं पृथ्वी पर एक धब्बा
और तैयार करते हैं रास्ता दमदारों के लिए-
भूसी होते हैं वे
घास नही ।
घास बस मेरी तरह है ।
अनुवाद-मोज़ेज़ माइकेल
कहती हैं औरते -सं -अनामिका ,साहित्य उपक्रम ,इतिहास बोध प्रकाशन ,2003
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3 comments:
हम्म ! ना काटे घास को कोई, तो भी कोई गधा या अन्य चौपाया आकर चर जाता है उसे । कैसा रहे जब घास काटने या चरने वाले को रोक सके या उसका चुनाव कर सके ।
घुघूती बासूती
आभार किश्वर नाहिद की कविता हमारे साथ बांटने के लिये.
शानदार कविता के लिये धन्यवाद।
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