"कोई फर्क नही अलबत्ता" या कि आज के कुछेक खाते-पीते युवाओं की बेलौस वाणी की तर्ज़ पर कन्धे उचका कर मुँह बिचका कर कहें "whatever !!" ...बहुत बार इस रवैये के साथ कुछ लोग किसी गम्भीर बह्स में कूद जाते हैं और अपने दो चार जाति भाइयों के साथ मिलकर ठिठोली का विषय बना लेते हैं सारे मुद्दे को । उस पर अगर बहस किसी ऐसे मुद्दे पर हो जिसमें स्त्री की अस्मिता, मुक्ति या परम्परागत छवि के बरक्स नवीन छवि की बात उठती हो ,स्त्री को प्रभावित करने वाले कानूनी संशोधनों की बात हो तो बहस की आग मे हाथ तापने वाले "व्हाटेवर" वाले बेखयाल , बेपरवाह लोग निरंतर परम्परा और संसकृति की दुहाई देते हैं और तर्क के बदले "भावनाओ को समझने की बात भी करते हैं " और उस पर तुर्रा यह कि सामने वाला अतार्किक है ।भाई हम तार्किक हैं तभी शायद भावनाओं से आगे जाकर सोच रहे हैं,इसलिए भावनाएँ तो आप ही समझें कृपया !
हम बड़े आराम से यह मुद्दा किसी मंच से उठा सकते थे पर क्या करें कि औरों को तो फर्क नही पड़ता होगा अपन को पड़ता है जब बहस व्यक्तियों के नामों के सहारे शीर्षक बना बना कर हिट्स लेने वाली मानसिकता से शिथिल और हास्यास्पद हो जाती है।"...वालियों" को बदनाम करने मे मेरा भी पूरा हाथ होगा ही , इसलिए जब बात अपन के नाम से होने लगी है तो अच्छा है कि मंच का दुरुपयोग न करके मै अपने ब्लॉग से आवाज़ बुलन्द करूँ !18 अक्तूबर की बात और हम अब जाग रहे हैं तो भई क्या करें दुनियावी मानुषों की तरह अपने के जीवन के भी कुछ पचड़े हैं ही रोटी पानी कमाने के , सो तब देखा नही , और ऐसे हितैषी भी नही है ब्लॉगजगत मे अपने कि तुरंत फोन की घण्टी घुमा दें -कि भई आपकी पोस्ट या कमेंट से बवाल हुआ ...आप जल्द जवाब दें ....{अच्छा ही है कि हमारा साबका समझदारों और सयाने ब्लॉगरों से है}
जिनकी सोच किसी खास दायरे मे कैद हो वे बहस नही केवल कुतर्क ..या कहें प्रलाप कर सकते हैं ,और जो अपने तर्क {?} के समर्थन में गवाहों को पेश करने लगे तो अपन को बिलकुल भी सन्देह नहीं कि यह .....वालियों का भय है और खाली दिमाग वाली कहावत चरितार्थ हो रही है ....और कविता मे कहें तो यह सोच कुछ ऐसी है कि ---
हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद है ,
सूरत बदले न बदले
ब्लॉग हिट होना ही चाहिये
...
व्यक्तिगत हमले बाज़ी न माना जाए इसलिए अपन ने लिंक नहीं दिये हैं ,ब्लॉगजगत मे बेशक दो चार मूढ होंगे ही पर बाकी बहुत समझ दार भी हैं सो वे लिंक स्वयम खोज लेंगे ।जिन खोजाँ तिन .....
और जब आप भी लुत्फ ही उठा रहे थे "....वालियों" को उकसा कर ,नाम ले लेके आमंत्रित कर कर के तो अपना उद्देश्य भी कोई फर्क नही अलबत्ता वाले अन्दाज़ मे मज़े लेने का हो आया है जी :-) सो यह पोस्ट नमूदार हुई है आपकी जानिब ।
आप सब सुधीजन मज़े लें क्योंकि हिन्दी ब्लॉगजगत हो या हिन्दी पत्रकार या बाकी हिन्दी वाले सब अबही तक टुच्चेपन मे ब्रह्मानन्द खोज रहे हैं ।सो ये हमरी ओर से टुच्चेपन के महायज्ञ मे एक छोटी सी अतार्किक आहुति !
Wednesday, October 22, 2008
Friday, September 5, 2008
बचपन के हत्यारे स्कूल
वह 6 साल का नटखट बालक नही जानता था कि “सस्पेंडिड” के मायने क्या होते हैं| स्कूल से सस्पेंशन और वह भी उस काम के लिए जो उसकी उम्र में नीन्द और भूख जैसी ज़रूरत है , स्वभाव है ।इसलिए बहुत सम्भव है उसके लिए “नॉटी”होने की सज़ा स्वरूप मिला स्कूल से 6 दिन का सस्पेंशन अचानक मिली छुट्टियों से कम मज़ेदार न हो। लेकिन उसका यह भोलापन कुठाराघात का शिकार हो गया है और बचपन की मौज मस्ती काफूर हो गयी है। वह स्थान जिसे अब तक परिवार और मन्दिर की तरह एक पवित्र संस्था मानने की परम्परा है ,जहाँ हम अपने बच्चों को मानवीयता, शिष्टाचार और जीने की तमीज़ सीखने भेजते हैं वही स्थान उस बचपन के लिए कितना खतरनाक और अमानवीय हो सकता है इसके साक्षात उदाहरण हम कई बार देख चुके हैं। टैगोर इंटरनेशनल स्कूल के पहली कक्षा के छात्र लव दुआ के साथ जो हुआ वह एक और घण्टी है उस खतरे की जो स्कूलों मे जाने वाली हमारी नन्ही जानों पर आन पड़ा है।
स्कूल में जब बच्चा पहला कदम रखता है तो उसकी आयु मात्र 3 साल होती है ,वह परिवार माँ-दादी –दादा के संरक्षण और दुलार से पहली बार बाहर निकलता है , उसके लिए सारी दुनिया वयस्कों का बनाया एक ऐसा तिलिस्म होती है जिसमें कब कहाँ हाथ रख देने पर कौन सा खज़ाना खुल जाएगा या कब कौन सी दीवार ढह पड़ेगी या ज्वाला मुखी फट पड़ेगा वह नही जानता । उसके लिए खेल , आनंद ,और शरारत के साथ साथ एक सहज प्रश्नाकुल जिज्ञासा के अतिरिक्त और कुछ समझ आने वाला नही होता। ऐसे में जब स्कूल उस नन्हे जीव को भावनात्मक सुरक्षा देने के स्थान पर दुत्कार , प्रताड़ना और उलाहने देता है तो स्कूल का मतलब ही बदल जाता है।वहाँ जाना भय का पर्याय हो जाता है और छुट्टी आनन्द का।
अभी “तारे ज़मीन पर ” जैसी फिल्में बहुत पुरानी नहीं हुईं जिसे सराह सराह कर अभिभावक-शिक्षक थक नही रहे थे। शारीरिक दण्ड जाने कब से स्कूलों मे प्रतिबन्धित
मैं समझने की कोशिश करना चाहती हूँ उस मनस्थिति को ,उस वातावरण को जिसमें अध्यापक एक दरिन्दे मे तब्दील होता है और स्कूल जेलखाने में।प्रबन्धकों का दबाव, कार्यभार की अधिकता, वेतन की कमियाँ वगैरह । लेकिन किसी भी तरह यह बात समझ नही आ रही कि किसी 6 साल के बच्चे का “नटखट” होना असहज , अस्वाभाविक बात कैसे है।क्या बालपन अपराध है ? दिल्ली और एन सी आर के बहुत से मान्यता प्राप्त स्कूल हमारे अधिकांश बच्चों के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। वे न केवल उनके बचपन की हत्या कर रहे हैं वरन उनकी समझ की भी हत्या करके उन्हें वह समझा रहे हैं जो वे समझते हैं कि ठीक है।स्कूल के पहले ही दो-तीन दिनों में नन्हे बच्चे को , जो शिक्षक को अभिभावक से भी बड़ा दर्जा देता है उन्हें समझा दिया जाता है कि तुम मूर्ख हो – कुछ नही जानते – इसलिए चुपचाप सुनना तुम्हारा परम कर्तव्य है।अधिकांश अध्यापक इस समझ के साथ आते हैं कि बच्चा कोरा कागज़ है। शुरुआती दिनों में ही उन पर “स्लो”, “नॉटी”,”सुस्त” “स्मार्ट””डिसलेक्सिक” जैसे लेबल चिपका दिये जाते हैं और बारहवीं कक्षा तक वे अध्यापकों के कवच की तरह काम करते हैं।और हद है कि 12 साल मे बालक की उस प्रवृत्ति मे कोई बदलाव नही होता ।प्रतिस्पर्द्धा की अन्धी दौड़ मे अपने बच्चों को आगे रहने काबिल बनाने के लिए अभिभावक स्कूल के इस व्यवहार से निभाने की भरपूर कोशिश करते हैं।अधिकांश स्थितियों में तो वे इस बात से परिचित भी नही होते कि जो शिक्षण पद्धतियाँ उसके बच्चे के स्कूल में अपनाई जा रही हैं उनमें कहीं गड़बड़ है ।
इसमें कोई शंका नही कि छोटे बच्चे के लिए स्कूल का सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिये कि बच्चे का स्कूल जाने का मन करे लेकिन अफसोस कि उसी को हासिल करने मे स्कूल असफल हैं । इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि स्कूल में पहुँचते ही बच्चे को भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा का आश्वासन मिले और वह भरोसा करना सीखे । गिजुभाई ने प्राथमिक शिक्षा पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘दिवास्वप्न’ क्यों रखा था यह कुछ कुछ अनुमान होने लगा है।दिनदहाड़े ,खुली आँखों से सपना देखने की हिमाकत करना असम्भव को साकार होते देखने के बराबर है।प्राथमिक शिक्षा को लेकर वे जैसे सम्वेदनशील थे वह अध्यापकों,अभिभावकों व स्कूल प्रबन्धनों के लिए मिसाल होना चाहिये ।पर अफसोस कि शिक्षा जगत प्राथमिक शिक्षा में बच्चे के प्रति सम्वेदनशील होना शायद कभी नही सीख पाया। शिक्षक-प्रशिक्षण के विभिन्न कोर्सों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे अध्यापकों को बालमन और बाल प्रवृत्तियों को समझना ही नही सिखा पा रहे।वे नही सिखा पा रहे कि नटखट होना बच्चे का स्वभाव है, नैसर्गिक प्रवृत्ति है।वे उन्हें पहले दिन से ही प्रौढ बना देना चाहते हैं।
स्कूलों को पहले दिन से ही ट्रेंड बच्चे चाहिये जो अपना काम समय पर पूरा करने , टेस्ट में नम्बर लाने , कक्षा मे चुप बैठने, अध्यापक के कहे को पत्थर की लकीर मानने , और अपनी समझ –सहजता-बालपन का त्याग करके इस दोहे का गूढार्थ समझ लें ।6-7 साल का बच्चा बाहर खुले-खिले बड़े मैदान में तितली को उड़ता देख उसे पकड़ने की बजाए श्याम पट्ट पर लिखी पढाई को टीपे ।जब बच्चे का व्यवहार अध्यापक के अनुरूप नही होता तो उसे अनेक तरीकों से हतोत्साहित किया जाता है।ऐसे में लीक से हटकर चलने वाले बच्चे या तो हतोत्सहित और असहाय महसूस करते हैं या बागी हो जाते हैं ; और उनके बागी स्वभाव को स्कूल व अध्यापक तरह तरह के अपराधों की श्रेणी मे रखकर विचित्र प्रकार के दण्ड की व्यवस्था करता है ।
अब तक की हमारी समाजिक -शैक्षिक अधिगम ने यही सिखाया है कि जो बच्चा जितनी जल्दी व्यवस्था से समझौता कर ले ,अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं को छोड़ एक “यूनिफॉर्मिटी” के तहत भीड़ बन जाए ,उतना ही सफल और सुखी होगा ।“खेलोगे कूदोगे होगे खराब..” जैसी कहावतें सुना सुना कर हमें और हमारे बच्चों को ऐसा भीरू,चुप्पीपसन्द ,कायर और रीढविहीन बना दिया गया है कि हम खुद सवाल उठाए बिना स्कूल के कायदों पर चलने लगते हैं। “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” ने घिस-घिस और रट-रट की मानसिकता को बुद्धिमता का पर्याय बना दिया।सवाल उठाने की संस्कृति न हमें मिली , न हमारे बच्चों को मिल रही है। ऐसे में लव दुआ का केस और डराता है कि हर दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजते हुए अनजाने भय से रूह काँपती है कि कहीं हमारे दिल का टुकड़ा कैसी कैसी छींटाकशी , पिटाई ,अपमान , भेदभाव और भेद-भाव को सह रह होगा या ईश्वर न करे किसी दिन जीवन भर के लिए किसी भयंकर मानसिक-शारीरिक क्षति का शिकार न हो जाए।
स्कूल में जब बच्चा पहला कदम रखता है तो उसकी आयु मात्र 3 साल होती है ,वह परिवार माँ-दादी –दादा के संरक्षण और दुलार से पहली बार बाहर निकलता है , उसके लिए सारी दुनिया वयस्कों का बनाया एक ऐसा तिलिस्म होती है जिसमें कब कहाँ हाथ रख देने पर कौन सा खज़ाना खुल जाएगा या कब कौन सी दीवार ढह पड़ेगी या ज्वाला मुखी फट पड़ेगा वह नही जानता । उसके लिए खेल , आनंद ,और शरारत के साथ साथ एक सहज प्रश्नाकुल जिज्ञासा के अतिरिक्त और कुछ समझ आने वाला नही होता। ऐसे में जब स्कूल उस नन्हे जीव को भावनात्मक सुरक्षा देने के स्थान पर दुत्कार , प्रताड़ना और उलाहने देता है तो स्कूल का मतलब ही बदल जाता है।वहाँ जाना भय का पर्याय हो जाता है और छुट्टी आनन्द का।
अभी “तारे ज़मीन पर ” जैसी फिल्में बहुत पुरानी नहीं हुईं जिसे सराह सराह कर अभिभावक-शिक्षक थक नही रहे थे। शारीरिक दण्ड जाने कब से स्कूलों मे प्रतिबन्धित
मैं समझने की कोशिश करना चाहती हूँ उस मनस्थिति को ,उस वातावरण को जिसमें अध्यापक एक दरिन्दे मे तब्दील होता है और स्कूल जेलखाने में।प्रबन्धकों का दबाव, कार्यभार की अधिकता, वेतन की कमियाँ वगैरह । लेकिन किसी भी तरह यह बात समझ नही आ रही कि किसी 6 साल के बच्चे का “नटखट” होना असहज , अस्वाभाविक बात कैसे है।क्या बालपन अपराध है ? दिल्ली और एन सी आर के बहुत से मान्यता प्राप्त स्कूल हमारे अधिकांश बच्चों के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। वे न केवल उनके बचपन की हत्या कर रहे हैं वरन उनकी समझ की भी हत्या करके उन्हें वह समझा रहे हैं जो वे समझते हैं कि ठीक है।स्कूल के पहले ही दो-तीन दिनों में नन्हे बच्चे को , जो शिक्षक को अभिभावक से भी बड़ा दर्जा देता है उन्हें समझा दिया जाता है कि तुम मूर्ख हो – कुछ नही जानते – इसलिए चुपचाप सुनना तुम्हारा परम कर्तव्य है।अधिकांश अध्यापक इस समझ के साथ आते हैं कि बच्चा कोरा कागज़ है। शुरुआती दिनों में ही उन पर “स्लो”, “नॉटी”,”सुस्त” “स्मार्ट””डिसलेक्सिक” जैसे लेबल चिपका दिये जाते हैं और बारहवीं कक्षा तक वे अध्यापकों के कवच की तरह काम करते हैं।और हद है कि 12 साल मे बालक की उस प्रवृत्ति मे कोई बदलाव नही होता ।प्रतिस्पर्द्धा की अन्धी दौड़ मे अपने बच्चों को आगे रहने काबिल बनाने के लिए अभिभावक स्कूल के इस व्यवहार से निभाने की भरपूर कोशिश करते हैं।अधिकांश स्थितियों में तो वे इस बात से परिचित भी नही होते कि जो शिक्षण पद्धतियाँ उसके बच्चे के स्कूल में अपनाई जा रही हैं उनमें कहीं गड़बड़ है ।
इसमें कोई शंका नही कि छोटे बच्चे के लिए स्कूल का सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिये कि बच्चे का स्कूल जाने का मन करे लेकिन अफसोस कि उसी को हासिल करने मे स्कूल असफल हैं । इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि स्कूल में पहुँचते ही बच्चे को भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा का आश्वासन मिले और वह भरोसा करना सीखे । गिजुभाई ने प्राथमिक शिक्षा पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘दिवास्वप्न’ क्यों रखा था यह कुछ कुछ अनुमान होने लगा है।दिनदहाड़े ,खुली आँखों से सपना देखने की हिमाकत करना असम्भव को साकार होते देखने के बराबर है।प्राथमिक शिक्षा को लेकर वे जैसे सम्वेदनशील थे वह अध्यापकों,अभिभावकों व स्कूल प्रबन्धनों के लिए मिसाल होना चाहिये ।पर अफसोस कि शिक्षा जगत प्राथमिक शिक्षा में बच्चे के प्रति सम्वेदनशील होना शायद कभी नही सीख पाया। शिक्षक-प्रशिक्षण के विभिन्न कोर्सों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे अध्यापकों को बालमन और बाल प्रवृत्तियों को समझना ही नही सिखा पा रहे।वे नही सिखा पा रहे कि नटखट होना बच्चे का स्वभाव है, नैसर्गिक प्रवृत्ति है।वे उन्हें पहले दिन से ही प्रौढ बना देना चाहते हैं।
स्कूलों को पहले दिन से ही ट्रेंड बच्चे चाहिये जो अपना काम समय पर पूरा करने , टेस्ट में नम्बर लाने , कक्षा मे चुप बैठने, अध्यापक के कहे को पत्थर की लकीर मानने , और अपनी समझ –सहजता-बालपन का त्याग करके इस दोहे का गूढार्थ समझ लें ।6-7 साल का बच्चा बाहर खुले-खिले बड़े मैदान में तितली को उड़ता देख उसे पकड़ने की बजाए श्याम पट्ट पर लिखी पढाई को टीपे ।जब बच्चे का व्यवहार अध्यापक के अनुरूप नही होता तो उसे अनेक तरीकों से हतोत्साहित किया जाता है।ऐसे में लीक से हटकर चलने वाले बच्चे या तो हतोत्सहित और असहाय महसूस करते हैं या बागी हो जाते हैं ; और उनके बागी स्वभाव को स्कूल व अध्यापक तरह तरह के अपराधों की श्रेणी मे रखकर विचित्र प्रकार के दण्ड की व्यवस्था करता है ।
अब तक की हमारी समाजिक -शैक्षिक अधिगम ने यही सिखाया है कि जो बच्चा जितनी जल्दी व्यवस्था से समझौता कर ले ,अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं को छोड़ एक “यूनिफॉर्मिटी” के तहत भीड़ बन जाए ,उतना ही सफल और सुखी होगा ।“खेलोगे कूदोगे होगे खराब..” जैसी कहावतें सुना सुना कर हमें और हमारे बच्चों को ऐसा भीरू,चुप्पीपसन्द ,कायर और रीढविहीन बना दिया गया है कि हम खुद सवाल उठाए बिना स्कूल के कायदों पर चलने लगते हैं। “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” ने घिस-घिस और रट-रट की मानसिकता को बुद्धिमता का पर्याय बना दिया।सवाल उठाने की संस्कृति न हमें मिली , न हमारे बच्चों को मिल रही है। ऐसे में लव दुआ का केस और डराता है कि हर दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजते हुए अनजाने भय से रूह काँपती है कि कहीं हमारे दिल का टुकड़ा कैसी कैसी छींटाकशी , पिटाई ,अपमान , भेदभाव और भेद-भाव को सह रह होगा या ईश्वर न करे किसी दिन जीवन भर के लिए किसी भयंकर मानसिक-शारीरिक क्षति का शिकार न हो जाए।
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Wednesday, September 3, 2008
आओ बहनो , पहनो बुर्खा
स्त्री जाति हृदयहीन नही है। माँ , बहन ,बेटी,पत्नी,सखी ,साथिन - सभी रूपों में उसने अपने साथी पुरुष को हमेशा सम्बल दिया ,उसके हितों को सर्वोपरि रखा। लेकिन आज के युग मे वह पुरुष पर अत्याचार करने लगी,बलात्कार करने लगी ,कलहकारिणी हो गयी, अर्द्धनग्न हो गयी ,कामिनी बन बन जवान पुरुषों को कामोन्मत्त करने लगीं ऐसा कि वे प्रताड़ित ,शोषित महसूस करने लगे।इतनी अर्द्धनग्न बालाएँ देख आज का जवान {प्रौढ और बूढा भी}अपने मन को कैसे काबू में रखे।खूंटे से बान्धे रहे ?आज तक बन्धा है कभी ? बान्ध लेंगे तो जैसे ही किसी दिन रस्से खुली या टूटी सब्र ढह जाएगा और अनर्थ हो जाएगा। सब इन नारीवादी ,आधुनिकाओं ,नये ज़माने की औरतों के कारण जो अपना तन ठीक से ढंकती नही।
बहनो,
ऐसा अत्याचार देख मेरा मन द्रवित हो रहा है। साड़ी में नाभि दिख जाती है , कमर दिखती है ,पीठ भी दिख जाती है ,ऑफिस में पुरुष कैसे काम करेगा ? बस में बिना चिपके कैसे खड़ा रह सकेगा?
जींस में फिगर दिखती है । कामिनी की कल्पना कर कर साथी पुरुष कैसे काम -पीड़ित हो रह पाएगा?बताइये भला ?क्या आप उन्हें बलात्कार या छेड़खानी की मानसिक ग्लानि से आज़ादी नही दिलवाना चाहतीं ?
ब्लाउस में भी क्लीवेज दिख जाती है ।सलवार-कमीज़ पर दुपट्टा न डालो तो उभरे उरोज़ देख बेचारा पुरुष पटखनियाँ खा खाकर बेहाल हो जाता है।
क्या आप वाकई पुरुष समाज को इतना दुख देना चाहती हैं ?अधिकांश अच्छी बहनें "नहीं" में उत्तर देंगी। और उपाय खोजना चाहेंगी ।
मेरे पास एक बढिया उपाय है । क्यों न हम सभी आज से बुर्खा पहनने का प्रण लें और बढते बलात्कारों और बदतमीज़ियों को होने से रोकें। साथ ही हमारे पुरुष साथियों का भी भला होगा। न नाभि ,पीठ,कमर ,यहँ तक कि चेहरा{कटीले नैन ,रसीले होंठ}दिखेंगे न ही वे मानसिक रूप से बलत्कृत होंगे।
और यूँ भी पुरुषों से अधिक स्त्रियां बलात्कार करती हैं, लेकिन वे मानसिक सतह पर करती हैं इस कारण बच जाती हैं. समाज में जहां भी देखें आज अधनंगी स्त्रियां दिखती हैं. पुरुष की वासना को भडका कर स्त्रियां जिस तरह से उनका मानसिक शोषण करती हैं वह पुरुषों का सामूहिक बलात्कार ही है. किसी जवान पुरुष से पूछ कर देखें. पुरुष को सजा हो जाती है, लेकिन किसी स्त्री को कभी इस मामले में सजा होते आपने देखा है क्या.
हमें अपनी नैतिक ज़िम्मेदारियों को समझना चाहिये। समाज पतन की ओर जा रहा है ।हम उसे बचा सकते हैं।आइये अपने भाइयों , मित्रों , ब्लॉगर बन्धुओं ,पिताओं , दूसरों के पतियों , अपने बेटों को बचायें ।
Wednesday, August 20, 2008
साहित्य अकादमी मे बे-कार जाने का अंजाम
कभी कभी कुछ घटनाएँ या समान्य सी लगने वाली बात-चीत पर भी ज़रा ध्यान दिया जाए तो विचित्र और अक्सर महत्वपूर्ण तथ्य ,अनुभव या समझ प्राप्त होती है।यूँ ही कल हमारे साथ हुआ।सहित्य अकादमी, मण्डी हाउस ,में एक कार्यक्रम के लिए गये थे।विश्विद्यालय के छात्रों के प्रयासों से छपने वाली पत्रिका सामयिक मीमांसा के लोकार्पण का अवसर था।अभी कार्यक्रम ख्त्म नही हुआ था ,पर मुझे जाना था सो मै उठकर चली आयी।गेट के भीतर ही खड़ी मै अपनी एक मित्र की प्रतीक्षा कर रही थी कि गार्ड को न जाने कैसे हमारी फजीहत करने की सूझी।वह कुर्सी से खड़ा हुआ और एक गत्ते से सीट झाड़ता हुआ बोला -"मैडम बैठ जाएँ,गाड़ी आएगी तब आ जाएगी"
मुझे तत्काल कुछ न सूझा ,क्या कहूँ ,मेरे होंठ बस फड़क रहे थे कुछ उगलते नही बन रहा था।अब वह फिर बोला
"बैठिये मैडम , गाड़ी आती होगी "
मैने कहा-"नही ठीक है , आप ही बैठिये"
"हम तो दिन भर बैठते ही हैं मैड्म आप बैठिये खड़ी क्यों रहेंगी जब तक गाड़ी आती है" उसने जिस भी अन्दाज़ मे यह कहा मुझे ऐसा लगा कि मेरा उपहास उड़ाया है।मै लाल-पीली हो रही थी,मन मे आया एक अच्छी सी गाली उस पर पटक के मारूँ । हद है !एक तो गाड़ी , वह भी ड्राइवर वाली !!मैं बस या मेट्रो से नही जा सकती।
तभी गुस्सा काफूर हुआ ,गार्ड की इस बात से एकाएक लगा कि क्या साहित्य अकादमी में ऐसी ही महिलाएँ आती हैं जिनके पास ड्राइवर वाली गाड़ी होती है? मेरे इस अभाव{?}की बात रहने दें तो सोचती हूँ कि साहित्य अकादमी आते जाते रहना अफोर्ड करने के लिए एक खास वर्गीय चरित्र की मांग करता है क्या? वह भी एक स्त्री से ?बहुत सम्भव है कि एक मध्यवर्गीय नौकरीपेशा स्त्री के पास साहित्य अकादमी के लिए न तो वक़्त बचता होगा न ही ज़रूरत। यह बौद्द्धिक अय्याशी वह अफोर्ड नही कर सकती होगी।बौद्द्धिक अय्याशी न भी कहूँ तो यह भटकना , आवारगी उसके लिए कहाँ !!मैं भी तो यही सोच कर भागी थी घर कि 8 बज रहे हैं रात के , कल का दिन चौपट हो जाएगा।बेटे का यूनिट टेस्ट है कल। पति को पढाने को कह तो दिया है पर एक घण्टा और यहाँ रुकने का मतलब है कि खाना आज भी बाहर् से आयेगा।वे भी थके होंगे, अभी घर पहुँचे होंगे ।यहाँ न आती तो दिन भर की थकान उतारने के बाद खाना बनाने के अलावा भी समय बच जाता {ब्लॉगिंग के लिए}।उस पर अभी बाहर सड़क पर जाकर औटो या बस या मेट्रो में धक्के खाने थे।शोफर ड्रिवेन कार !! आह !यह दुनिया मेरे लिए नही है!नही है!मेरे लिए नही है तो ,किसी स्कूल टीचर ,क्लर्क के लिए या किसी भी सर्वहारा के लिए तो कैसे ही हो पाएगी।उस गार्ड के लिए भी नही जो रोज़ वहाँ गेट पर चौकी दारी करता है। इसलिए बौद्धिक अय्याशी है।
फिर एकाएक दूसरी बात सोची , गार्ड ने कहा था -हम तो बैठते ही हैं दिन भर । गार्ड दिन भर बैठता ही है तो .....!खैर , वह गार्ड कितनी तंख्वाह पाता होगा कि दिन भर वह "खड़ा" रहे और मैडमों व सरों को सल्यूट मारे या तमाम तहज़ीब व आदर सहित उन्हें गाड़ी का इंतज़ार बैठ कर करने को कहे।
बहुत साधारण सी बातें और हमारा मन भी उन्हें कहाँ कहाँ ले जाता है।सब ठीक है।सब ऐसा ही है। ऐसा ही चलता रहेगा।क्या सच ?
Thursday, June 26, 2008
जहाँपनाह खुश हुए ......
कभी पढा था जो राष्ट्र विद्वानों ,कलाकारों और साहित्य कारों को सम्मान नही देता उसका पतन नज़दीक होता है ।बहुत सही बात है । आजकल अकादमियाँ , संस्थाएँ ,चयन समितियाँ ,यही करती हैं । राजा-महाराजा युग में इसका तरीका कुछ और था । मैं कल्पना कर रही हूँ किसी दरबारी सीन की। घनानन्द ने छन्द पढा और राजा ने खुश हो कर सोने के सिक्कों की थैली उछाल दी । महाराज प्रसन्न हुए !! या मुगले-आज़म का सीन । अनारकली ने नृत्य पेश किया और बादशाह सलामत ने खुश होकर बेशकीमती हार उछाल दिया ।
कहने को सामंतवाद देश से जा चुका है । लोकतंत्र है । शासक नही हैं हमारे प्रतिनिधि हैं । ऐसे में आप यदि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर हैं और समृद्ध व सम्मानित व्यक्ति हैं और आपको कोई कविता भावविभोर कर जाती है तो आप उस अति भावुक क्षण में क्या करेंगे ?
कवि को गले से लगा लेंगे ?आपकी आंखें नम हो जाएंगी ? अब भी सुनते हैं लता मंगेशकर को 'ए मेरे वतन के लोगों....' गाते सुन पंडित नेहरू की आंखें भीग गयी थीं ।
ऐसा ही भावुक क्षण तब आया जब सुलभ शौचालय की 30 महिला कर्मचारियों का एक दल जो यू एन रवाना होने वाला है , राष्ट्रपति से मिलने पहुँचा और उनमें से एक लक्षमी नन्दा ने अपनी एक कविता 'पतन से उड़ान की तरफ' का पाठ किया । कविता एक महिला सफाई कर्मचारी के उत्थान की बात कहती थी जिसे सुनकर राष्ट्रपति इतनी भावविभोर हुईं कि तत्काल 500 रुपए का नोट निकाल कर लक्ष्मी को थमा दिया ।लक्ष्मी अति प्रसन्न थी । यह उसके लिए एक बेशकीमती नोट था जिसे वह कभी खर्च नही करेगी । निश्चित रूप से वह 500 का नोट एक टोकन था ,कोई बहुत बड़ी राशि नही थी । और लक्ष्मी भी उसे किसी स्मृति चिह्न की तरह ही सम्भाल कर रखेगी । पर मुझे अब भी यह सामंती अदा परेशान कर रही है । राष्ट्रपति उठ कर सफाई कर्मचारी लक्षमी को गले से लगा लेतीं तो उनका सम्मान मेरे मन में कई गुना बढ जाता । पर खुश होकर या भावुकता के क्षण में जब आपके विशिष्ट ,ज़िम्मेदार हाथ जेब से कुछ निकालने को आतुर हो जाएँ तो मेरे लिए यह निश्चित ही -जहाँपनाह खुश हुए ....! वाला सामंती अन्दाज़ ही है ..अखबार जिसे अनबिलीवेबल , हार्ट्वार्मिंग ,ब्रेथ टेकिंग घटना कह रहे हैं ....
कहने को सामंतवाद देश से जा चुका है । लोकतंत्र है । शासक नही हैं हमारे प्रतिनिधि हैं । ऐसे में आप यदि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर हैं और समृद्ध व सम्मानित व्यक्ति हैं और आपको कोई कविता भावविभोर कर जाती है तो आप उस अति भावुक क्षण में क्या करेंगे ?
कवि को गले से लगा लेंगे ?आपकी आंखें नम हो जाएंगी ? अब भी सुनते हैं लता मंगेशकर को 'ए मेरे वतन के लोगों....' गाते सुन पंडित नेहरू की आंखें भीग गयी थीं ।
ऐसा ही भावुक क्षण तब आया जब सुलभ शौचालय की 30 महिला कर्मचारियों का एक दल जो यू एन रवाना होने वाला है , राष्ट्रपति से मिलने पहुँचा और उनमें से एक लक्षमी नन्दा ने अपनी एक कविता 'पतन से उड़ान की तरफ' का पाठ किया । कविता एक महिला सफाई कर्मचारी के उत्थान की बात कहती थी जिसे सुनकर राष्ट्रपति इतनी भावविभोर हुईं कि तत्काल 500 रुपए का नोट निकाल कर लक्ष्मी को थमा दिया ।लक्ष्मी अति प्रसन्न थी । यह उसके लिए एक बेशकीमती नोट था जिसे वह कभी खर्च नही करेगी । निश्चित रूप से वह 500 का नोट एक टोकन था ,कोई बहुत बड़ी राशि नही थी । और लक्ष्मी भी उसे किसी स्मृति चिह्न की तरह ही सम्भाल कर रखेगी । पर मुझे अब भी यह सामंती अदा परेशान कर रही है । राष्ट्रपति उठ कर सफाई कर्मचारी लक्षमी को गले से लगा लेतीं तो उनका सम्मान मेरे मन में कई गुना बढ जाता । पर खुश होकर या भावुकता के क्षण में जब आपके विशिष्ट ,ज़िम्मेदार हाथ जेब से कुछ निकालने को आतुर हो जाएँ तो मेरे लिए यह निश्चित ही -जहाँपनाह खुश हुए ....! वाला सामंती अन्दाज़ ही है ..अखबार जिसे अनबिलीवेबल , हार्ट्वार्मिंग ,ब्रेथ टेकिंग घटना कह रहे हैं ....
Saturday, June 7, 2008
Wednesday, April 23, 2008
सास बहू को विमल जी की नज़र लगी
आखिर विमल जी ने अपनी ठुमरी मे सास -बहू मेलोड्रामा और स्त्री के कामिनित्व व दुष्टता को नज़र लगा ही दी । उस दिन वे बड़े चिंतित थे इस पोस्ट में और हम भी टिप्पणी मे चिंता ज़ाहिर कर आए थे । पर सच कहें तो जाने कितने साल से इस चिंता मे हैं कि आखिर सीरियल क्यों हमारे समाज को और खासकर औरत को सदियों पीछे धकेल रहे हैं ? एकता कपूर को कई गालियाँ भी दे डाली मन ही मन ।
आज अखबार देखा तो पता लगा कि अफगानिस्तान की सरकार ने तुलसी और कसौटी जैसे सीरियलों पर रोक लगा दी है । ताली बजाने को मन हुआ ।पर पूरी खबर पढ कर खुशी को जंग लग गया । एक बन्द समाज की सुन्दर पैकेज में से उठती सड़ान्ध को माने दूसरे बन्द समाज ने नकार दिया हो ।यदि काबुल वालों ने ‘सास भी कभी बहू...’ को इसलिए नकारा होता कि ये कहानियाँ हमारे नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए बिल्कुल भी ठीक नही हैं ,और ये साज़िश ,रंजिश ,हिंसा , विकृत -घिनौने चरित्रों व गलत सदेशों के इर्द गिर्द घूमती हैं ...तो अच्छा होता । लेकिन काबुलीसरकार ने कारण दिया तो केवल “विवाहेतर सम्बन्ध व टूटती शादियाँ ” । मुस्लिम समाज में बेहद लोकप्रिय होने पर भी ये सीरियल इन दो कारणों से कठमुलाओं को रास नही आये । साज़िश और बदले की भावनाओं से भरे हुए किरदार और कहानियाँ तो ठीक हैं पर शादी का टूटना और विवाहेतर सम्बन्ध कतई स्वीकार नही किये जा सकते ।आखिर अफगानी समाज पर इसका क्या असर होगा ?
शादी एक ऐसा बेसिक रिश्ता है जिसका टूटना किसी बन्द समाज को बर्दाश्त नही । और उसकी पवित्रता {?} को बचाए रखने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं ।इन कहानियों में समाज के असली परेशानियाँ और स्त्री की मूलभूत समस्याएम कहाँ खो गयी हैं । घर को जोड़े रखना ,सत्य और त्याग की मूर्ति बनना ,करवाचौथ मनाना ,पति को देवता मानना । क्या यही हैं आज की स्त्री के जीवन की ज़रूरतें ?विमल जी ने जिन सीरियलों के नाम गिनाए वे साफ दिखा रहे हैं कि स्त्री की एक ट्रेडीशनल छवि को ही प्रोत्साहित किया जा रहा है ।
स्टार प्लस में एक खबर है “सास बहू और साज़िश ”जिसके पीछे का नारा है कि “क्योंकि सीरियल भी खबर हैं ” । इतना महत्व इन घटिया कहानियो को ? तो मुझे सबसे बड़ी आपत्ति है इस सीरियलों मे दिखाई जाने वाली साज़िशें और बदले और षडयंत्र और तानाकशी और सभी बुराइयों के बीच एक दिये सी खुद जलती और दूसरों को रोशनी देती अकेली सीता पार्वती सी नायिका से । जाने किस घर की कहनियाँ हैं ये ।गलतफहमियाँ पैदा करती हुई खलनायिकाएँ और रोती बिसूरती सावित्रियाँ जो सक्षम समर्थ हैं ।
ज़रूरत है इन सीरियल्स के पूरे बहिष्कार की ।
लेकिन मेरे या एक दो और लोगों के बहिष्कार से क्या होगा । जनता इन्हें लोकप्रिय बना रही है ,चैनल पैसे भुना रहा है ,सरकार हाथ पर हाथ रखे बैठी है ।
कहाँ से नियंत्रण स्थापित होगा । सरकार के हाथ मे हमेशा कैंची देना क्या सही होगा ? जनता क्या इतनी शिक्षित और समझदार है कि खुद ही इन्हे देखना बन्द कर दे ? क्या एक सेंसर बोर्ड होना चाहिये सीरियल्स के लिए ? या कि खुद निर्माता को जनता के प्रति यह ज़िम्म्मेदारी समझते हुए कहानियों का चयन ध्यान से करना होगा ।
Tuesday, April 15, 2008
IBRT -"पहले वे उपेक्षा करेंगे ,फिर वे हसेंगे ,फिर वे लड़ेंगे ...और फिर हम जीत जायेंगे ...."
बहुत छोटी थी जब एक बार धर्मशाला गयी थी ।बहुत हैरानी होती थी वहाँ बसे एक छोटे तिब्बत को देख कर ।अपने मे खुश ,बुद्ध के अहिंसक श्रद्धालु ,शरणार्थी और अति साधारण मानव । लेकिन दिल्ली के बस अड्डा के पास की मोनास्ट्री से निकल ये जीव अचानक सड़कों पर कैसे उतर आये हैं ये देख अब हैरानी नही हो रही ,स्वातंत्रय किसी भी जाति की सबसे बड़ी चाह है ।एक भारतीय शायद इस बात को बहुत बेहतर समझ सकता है । लेकिन क्या वह देश भी इसे समझ पाएगा जिसने दमित होने का , जिसने शासित और शोषित होने का दंश नही सहा ?क्या मुख्य धारा का आदमी कभी हाशिये के दर्द और विमर्श को समझ सकता है ?या उसके विद्रोह को अपने विद्रूप से सदैव झुठलाने की कोशिश करता है ?और जब हाशिये के पक्ष मे बोलता है तो हमेशा उसकी शक्ति का ह्रास करने के लिए ?
बड़ी हैरानी होती है जब हम विद्रोह और विरोध के कारणो पर न जाकर विद्रोह और विमर्श के तरीकों पर ही बहस करने बैठ जाते हैं ?
तिब्बती आज भड़क उठे हैं । क्या हम उनका शोर सुन पा रहे हैं ? या शोर पर सवाल उठा रहे हैं ? भारत मे जन्मी एक बेचैन तिब्बती आत्मा कह रही है कि हम वह शोर सुनें ।इस बेचैन आत्मा के सवाल हैं -
“Please relieve us from the expectations of a community which is non-violent in nature. Buddhism preaches non-violence, but which religion doesn’t? Isn’t it human to shout and protest if your country is suppressed for decades, despite attempts of peaceful dialogue? We are just humans, not Buddha”.
आज़ादी के साथ साथ यह सवाल है अस्मिता का । और किसी भी दमित जाति की अस्मिता का सवाल शक्ति ,सत्ता के नियंत्रण से टकराता है ।इस मायने में मैं स्त्री ,दलित या किसी भी दमित अस्मिता के सवाल को भी साथ ही जोड़कर देखूंगी ।
कोई भी अस्मिता जब मुखर होती है उसके पीछे कुछ ऐतिहासिक ,राजनीतिक ,सामाजिक करण होते हैं । स्त्री ,दलित अस्मिताओं के मुखर होने के पीछे भी रहे हैं । या सबसे सही यह है कि इतिहास अपने आप मे एक बड़ा कारण हो जाता है ।वर्ना कोई दमित अस्मिता अचानक एक ही दिन अत्याचार सह कर लड़ने को आतुर नही हो जाती ।40-50 साल के अहिंसक विरोध के बाद ही आज तिब्बत भड़क उठा है । सदियों के अन्याय सहने के बाद और अपनी लॉयल्टी {?}दिखाने के बाद ही स्त्री-दलित अस्मिताएँ अब जब तब भड़क उठती हैं ।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखा जाए तो किसी अस्मिता के मुखर होने के पीछे कुछ अनिवार्य तत्व होते हैं जैसे -
1.उस समुदाय या जाति द्वारा एक समान इतिहास शेयर करना ।
2. समान संस्कृति और परम्परा को शेयर करना
3. उस समुदाय के उद्गम सम्बन्धी समान धारणाएँ और मिथक -परमपरा से समान रूप से सम्बद्ध होना ।
एक समान इतिहास है जो एक स्त्री होने के नाते मुझे हर स्त्री से ही नही जोड़ता बल्कि हर स्त्री को उसके अतीत के साथ निरंतरता में खड़ा करता है। यहीं से उसे बल मिलता है ।दलित अस्मिता के साथ भी ये सभी घटक लागू होते हैं और तिब्बती लोगो के साथ भी । ये सभी अस्मिताएँ एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत आगे आई हैं ।और एक समान वर्तमान भी शेयर कर रही हैं ।केन्द्रीय शक्ति सत्ता और ज्ञान की मुख्यधारा से एक समान उपेक्षा और दमन भी शेयर कर रही हैं ।
कहने वाले अभी कह रहे हैं कि दलित बार-बार वही बात करते हैं उनके पास कहने को कुछ नया नही माना कभी अन्याय हुआ था पर अब भी क्यो रो रहे हैं ,स्त्री विमर्शकारों के भी सिर पैर नही और उनकी दलीलों मे कुछ नया नही ये सुघड़ औरतो की आत्ममुग्धता के अलावा कुछ और नही ,तिब्बती भी बुद्ध के अनुयायी होकर भी हिंसा पर उतारू हैं और इसलिए खोखले हैं वे इतनी जल्दी अहिंसा से हिन्सा पर उतर आये ? इतना ही सब्र था ?
माने यह कि हर बार की तरह विरोध के कारणो पर विचार न कर के हम सब विरोध के तरीकों पर बहस कर के इधर उधर खिसक ले रहे हैं ।सवाल पुराने होते जा रहे हैं और सच ये है कि वे बढते जा रहे हैं लेकिन उनके जवाब की जगह उपेक्षा मिल रही है । और सबसे बड़ा सच यह है कि ओलम्पिक की मशाल के साथ हर देश की सरकार खड़ी है ...........
मुख्यधारा की यह उपेक्षा और यह उपहास क्या वाकई इन अस्मिताओं को उभरने से रोक लेगा ?क्या हम भड़के हुए तिब्बत पर पानी डालकर उसकी आग बुझा देंगे .....?
बेचैन आत्मा का{जाने कितनी आत्माओं का}यह विश्वास है कि उपेक्षा और उपहास का यह सिलसिला थमेगा ।-
"Mahatma Gandhi has said "First they ignore you, then they laugh at you, then they fight you. And then... you win." I hope to God it’s true for Tibet!"
" पहले वे उपेक्षा करेंगे ,फिर हसेंगे ...हाशिये के पूरे पन्ने पर बिखर जाने वाला हास्य ...{या कहें अट्टहास } , फिर वे लड़ेंगे .....और तब हम जीत जायेंगे ।"
आमीन !!
IBRT -India born restless tibetan
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Monday, April 7, 2008
औरतों ! तुम तलाक क्यों नहीं ले लेतीं ?
अब तो हद है ।मैं बार बार इस टॉपिक से पीछा छुड़ाने की कोशिश करती हूँ , ये भूत की तरह मेरे पीछे लगा रहता है । माजरा क्या है ? आज क्यो न इसे चुका दूँ , पीछा छूटे !एक बार ! आर या पार ! बस इतना सा झेलना और बच जायेगा कि जब तक फैसले न ले लूँ अपने दम पर !कोई नही बदलेगा तुम्हारे लिए । तुम खुद को बदल डालो । एक दम ! कईं सदियों के कष्ट का हल एक पल दूर है । ले डालो तलाक ! या कर दो इनकार ! नही करनी शादी ! नही बनना मुझे पत्नी !नही होना मुझे गुलाम !मैं अपनी शर्तों पे जिउंगी !ये अनाम मुझे सोच के रास्तों पर से गुज़रने के पहले ही भड़का दे रहे हैं ।मुझे एकदम से कोई हल नही सूझ रहा । बस एक झटका और सालों के नरक से निजात ! कितना सरल है न !आखिर अपने आप समाज सुधर जायेगा जब हम सब एक स्वर में खड़ी होकर कह देंगी कि जाओ हम तुम्हारे बिना रह लेंगे { क्या सचमुच ? }और जो कहे के बिन तुम्हारे रह भी नही सकती और इस तरह साथ रह भी नही सकती ,अपना चेहरा देखो कि कितने अमानवीय हो और अहसास हो जाए तो खुद को बदलो ,लेकिन वो तो नही बदलेगा ,तो मैं मुँह बन्द करके पड़ी क्यों नही रहती ,अपनी घुटन से औरों को रसातल का रास्ता दिखाने का कलंक तो न मिलेगा ?
लेकिन हद है कि कोई पत्नी साथ खडी नही होगी जब मैं कहूंगी-आर या पार ।क्योंकि कुछ मामलों में नही होता आर या पार । जब होता है तो सिखाना नही पड़ता ।वो चिंतन का एक सिलसिला होता है जो आर या पार के प्रश्न का उत्तर बन जाता है ।सोच के वो स्फुलिंग जगाना या जागना ज़रूरी है,वर्ना आर- पार के क्षण में भी तुम हार का रास्ता चुनोगी ।पार चुनने की हिम्मत स्वचेतना से आती है ,अस्मिता से मिलती है ,मैं क्या हूँ ? मैं ऐसी क्यों हूँ ? किसने किया ऐसा ? यह व्यवस्था क्या है ? किसके हित मे बनाई गयी ? किसने बनाई ? इसमे मेरी जगह क्या है ? ऐसी जगह क्यों है ? क्या मैं वाकई क्षीण हूँ ? तुच्छ हूँ ? क्या मेरे प्रति किये जाने वाले कुछ सांसारिक कार्य मेरा अपमान हैं जिन्हें मैं दुनिया की रीति माने बैठी हूँ ?
"जीव क्या है ? क्यों है ? जगत क्या है ?ईश्वर क्या है ? मैं संसार में क्यों हूँ ?"ये भारतीय अध्यात्म के आदि प्रश्न हैं जिनके जवाब खोजता हुआ मानव अपनी अस्मिता और अस्तित्व के प्रति सचेत होता है ।जब तक अस्मिता के सवाल ही मन में न उठें कोई भी फैसला हमारा कैसे होप सकता है ? कहाँ से आयेगी वह ऊर्जा जो किसी निर्णय के बाद के आने वाले परिणामों को झेलने के लिए हमारा मन तैयार करेगी ? और क्या हमारे निर्णय निरपेक्ष हो सकते हैं ?जिससे मैं प्यार करती हूँ , उसे उठा के पटक दूँ ,क्योंकि वह एक व्यवस्था के तहत् पला है? या धीम धीमे चोट करूँ ?
मेरी माँ के मन में नही उठे कभी सवाल !वह ज़्यादा पढी नही थी ! उसका ज़माना भी ऐसा था जब स्त्री आज के मुकाबले ज़्यादा बन्धन में थी !मैं ,उसकी अगली पीढी ,जाने कितने सवाल उठा रही हूँ , जाने कितने फैसले खुद ले पा रही हूँ ! मेरा समाज और परिवेश उसकी अपेक्षा में थोड़ा खुला है । मैं उससे ज़्याद पढी लिखी हूँ ।
सोचती हूँ अगर मैं 9-10 क्लास पढी होती ,क्या मैं इतने सवाल उठा पाती ? क्या मैं समझ पाती कि पितृसत्ता क्या है ? वो क्यों खतरनाक है मेरे अस्तित्व के लिए ?मुझे आएना कौन दिखाता रहा ? किताबें ? टी वी ? अखबार ? कॉलेज ?कैम्पस?बहन ? या कोई मित्र?कोई तो होगा !!स्वचेतना का उत्प्रेरक !
मैं कमज़ोर हूँ !मैं उठा के पटक नही सकती अपने पिता को ! अपने पति को ! मैं उन्हे प्यार करती हूँ !इसलिए मुझे वक़्त लग रहा है !वे मेरे असली कष्टॉ को पहचान रहे हैं । वे मेरा साथ देने की कोशिश कर रहे हैं । वे खुद को बदल रहे हैं ।बेशक धीमे धीमे । उठा के पटक सकती हूँ पर ऐसा नही करूंगी ।उनकी कोशिश बेकार हो जायेगी । मुझे उनका साथ चाहिये । मुझे मातृत्व सुख भी चाहिये ।मेरी संतान को भी माता पिता दोनो चाहिये ।बटन न लगाने वाली चिड़चिड़ि पत्नियाँ मेरे आस पास हैं ।उन्हें सोचने की सही दिशा चाहिये ।
आइना दिखाने से बेहतर क्या हो सकता है ?
डॉ. अम्बेदकर ने एक बार कहा था -"गुलाम को यह दिखा दो ,अहसास करा दो कि वह गुलाम है , और वह विद्रोह कर देगा !!"
लेकिन हद है कि कोई पत्नी साथ खडी नही होगी जब मैं कहूंगी-आर या पार ।क्योंकि कुछ मामलों में नही होता आर या पार । जब होता है तो सिखाना नही पड़ता ।वो चिंतन का एक सिलसिला होता है जो आर या पार के प्रश्न का उत्तर बन जाता है ।सोच के वो स्फुलिंग जगाना या जागना ज़रूरी है,वर्ना आर- पार के क्षण में भी तुम हार का रास्ता चुनोगी ।पार चुनने की हिम्मत स्वचेतना से आती है ,अस्मिता से मिलती है ,मैं क्या हूँ ? मैं ऐसी क्यों हूँ ? किसने किया ऐसा ? यह व्यवस्था क्या है ? किसके हित मे बनाई गयी ? किसने बनाई ? इसमे मेरी जगह क्या है ? ऐसी जगह क्यों है ? क्या मैं वाकई क्षीण हूँ ? तुच्छ हूँ ? क्या मेरे प्रति किये जाने वाले कुछ सांसारिक कार्य मेरा अपमान हैं जिन्हें मैं दुनिया की रीति माने बैठी हूँ ?
"जीव क्या है ? क्यों है ? जगत क्या है ?ईश्वर क्या है ? मैं संसार में क्यों हूँ ?"ये भारतीय अध्यात्म के आदि प्रश्न हैं जिनके जवाब खोजता हुआ मानव अपनी अस्मिता और अस्तित्व के प्रति सचेत होता है ।जब तक अस्मिता के सवाल ही मन में न उठें कोई भी फैसला हमारा कैसे होप सकता है ? कहाँ से आयेगी वह ऊर्जा जो किसी निर्णय के बाद के आने वाले परिणामों को झेलने के लिए हमारा मन तैयार करेगी ? और क्या हमारे निर्णय निरपेक्ष हो सकते हैं ?जिससे मैं प्यार करती हूँ , उसे उठा के पटक दूँ ,क्योंकि वह एक व्यवस्था के तहत् पला है? या धीम धीमे चोट करूँ ?
मेरी माँ के मन में नही उठे कभी सवाल !वह ज़्यादा पढी नही थी ! उसका ज़माना भी ऐसा था जब स्त्री आज के मुकाबले ज़्यादा बन्धन में थी !मैं ,उसकी अगली पीढी ,जाने कितने सवाल उठा रही हूँ , जाने कितने फैसले खुद ले पा रही हूँ ! मेरा समाज और परिवेश उसकी अपेक्षा में थोड़ा खुला है । मैं उससे ज़्याद पढी लिखी हूँ ।
सोचती हूँ अगर मैं 9-10 क्लास पढी होती ,क्या मैं इतने सवाल उठा पाती ? क्या मैं समझ पाती कि पितृसत्ता क्या है ? वो क्यों खतरनाक है मेरे अस्तित्व के लिए ?मुझे आएना कौन दिखाता रहा ? किताबें ? टी वी ? अखबार ? कॉलेज ?कैम्पस?बहन ? या कोई मित्र?कोई तो होगा !!स्वचेतना का उत्प्रेरक !
मैं कमज़ोर हूँ !मैं उठा के पटक नही सकती अपने पिता को ! अपने पति को ! मैं उन्हे प्यार करती हूँ !इसलिए मुझे वक़्त लग रहा है !वे मेरे असली कष्टॉ को पहचान रहे हैं । वे मेरा साथ देने की कोशिश कर रहे हैं । वे खुद को बदल रहे हैं ।बेशक धीमे धीमे । उठा के पटक सकती हूँ पर ऐसा नही करूंगी ।उनकी कोशिश बेकार हो जायेगी । मुझे उनका साथ चाहिये । मुझे मातृत्व सुख भी चाहिये ।मेरी संतान को भी माता पिता दोनो चाहिये ।बटन न लगाने वाली चिड़चिड़ि पत्नियाँ मेरे आस पास हैं ।उन्हें सोचने की सही दिशा चाहिये ।
आइना दिखाने से बेहतर क्या हो सकता है ?
डॉ. अम्बेदकर ने एक बार कहा था -"गुलाम को यह दिखा दो ,अहसास करा दो कि वह गुलाम है , और वह विद्रोह कर देगा !!"
चिड़चिड़ी पत्नी
झल्लाई औरत सुबह सुबह चकरघिन्नी सी भाग रही थी । सब ठीक ठाक निबट जाए यही सोच रही थी । रोज़ यही सोचती है ।कल जो कमीज़ बटन लगाने को दी गयी थी वह उसे भूल ही गयी थी । आदमी ने उसे लाकर रोटी बेलती औरत के मुँह पर पटका ।"तुमसे एक बटन नही लगाया जाता ,मेरे ही काम नही याद रहते !"औरत की आँख से झर् झर आँसू बहने लगे ।वह रोटी छोड़ कमरे की ओर लपकी तो आदमी बोला "अब कोई ज़रूरत नही है । मैने दूसरी कमीज़ पहन ली है ।"वह मुँह झुकाए वापस बच्चों के टिफिन पैक़ करने लगी ।सबके चले जाने के बाद उसे सुकून मिला । पर अभी और बहुत् से काम निबटाने थे । दिन कटा । पता नही चला ।रात को छोटा बिस्टर मे कुनमुना रहा था । आदमी झल्ला रहा था । "उँह ! आराम से सो भी नही सकते !"
औरत ने मन ही मन गाली दी "कमबख्त आदमी ! हरामी ,कुत्ता !इसे सबसे चिढ है । बच्चा क्या मैं दहेज में लायी थी ?रंजना पागल है । पति को रिझा कर बस में रखने के टिप्स मुझे नही चाहिये । पागल समझ रखा है ।बनावटी मुस्कान ला लाकर रोज़ बात करना मेरे बस का नही । थक जाती हूँ ।रोज़ बिस्तर गर्म कर सकूँ इतनी हालत नही बचती ।भाड़ मे जाए ।"और औरत दिन पर दिन ढीठ होती जा रही थी । वह चिड़चिड़ी थी । लड़ाक थी । आए दिन रिक्शेवलो ,औटोवालों ,धोबी से झगड़ती थी ।उसे झगड़ कर चैन मिलता ।आदमी भी यही कहता था "बस ! तुमसे तो झगड़ा करवा लो जितना मर्ज़ी !हर बात पे लड़ने को तैयार । बात करना ही गुनाह है । क्या करूँ ऐसे घर पर रहकर " और वह निकल गया संडे का दिन दोसतों के साथ बिताने ।झगड़ैल बीवी से तो निजात मिलेगी ।झक्की औरत संडे के दिन बड़े का प्रोजेक्ट बनवाती रही और पाव भाजी बनाकर बच्चों को खिलाती रही ।संडे की शाम आदमी लौटा तो औरत अगले दिन बच्चों के स्कूल के कपड़े इस्त्री कर रही थी । वह बटन लगाना संडे को भी भूल गयी थी ।क्या जानबूझकर !!?
औरत ने मन ही मन गाली दी "कमबख्त आदमी ! हरामी ,कुत्ता !इसे सबसे चिढ है । बच्चा क्या मैं दहेज में लायी थी ?रंजना पागल है । पति को रिझा कर बस में रखने के टिप्स मुझे नही चाहिये । पागल समझ रखा है ।बनावटी मुस्कान ला लाकर रोज़ बात करना मेरे बस का नही । थक जाती हूँ ।रोज़ बिस्तर गर्म कर सकूँ इतनी हालत नही बचती ।भाड़ मे जाए ।"और औरत दिन पर दिन ढीठ होती जा रही थी । वह चिड़चिड़ी थी । लड़ाक थी । आए दिन रिक्शेवलो ,औटोवालों ,धोबी से झगड़ती थी ।उसे झगड़ कर चैन मिलता ।आदमी भी यही कहता था "बस ! तुमसे तो झगड़ा करवा लो जितना मर्ज़ी !हर बात पे लड़ने को तैयार । बात करना ही गुनाह है । क्या करूँ ऐसे घर पर रहकर " और वह निकल गया संडे का दिन दोसतों के साथ बिताने ।झगड़ैल बीवी से तो निजात मिलेगी ।झक्की औरत संडे के दिन बड़े का प्रोजेक्ट बनवाती रही और पाव भाजी बनाकर बच्चों को खिलाती रही ।संडे की शाम आदमी लौटा तो औरत अगले दिन बच्चों के स्कूल के कपड़े इस्त्री कर रही थी । वह बटन लगाना संडे को भी भूल गयी थी ।क्या जानबूझकर !!?
Friday, March 28, 2008
मनुष्य़ मूलत: कबाड़ी है ..
जहाँ भी निकल जाए इनसान ..एक आशियाना साधारण ,छोटा ,जैसा भी , बनाता है उसमें रमता जाता है और धीरे धीरे एक गृहस्थी एक साम्राज्य खडा कर लेता है अपने आस- पास । फिर वक़्त गुज़रने के साथ उसमें से बहुत कुछ कबाड बनता जाता है ।फिर दिक्कत आती है उस कबाड़ के मैनैजमेंट की ।
{साफ कर दूँ कि यह कबाड़ वह कबाड़खाने वाला नही है ।}
कुछ दिन तक अनदेखा करते रहो घर को , रसोई को ,पढने की मेज़ को , किताबों-कपडों की अलमारी को और अचानक एक दिन घर कबाड़ खाना लगने लगता है और हम सब उसके कबाड़प्रिय कबाड़ी । 4-5 साल पहले दीवाली पर मन कर के खरीदा हुआ सुन्दर लैम्प शेड कब आँखों को खटकने लग जाता है पता ही नही चलता । पहले बडे मन से हम चीज़ें यहाँ-वहाँ से इकट्ठा करते हैं और वक़्त बीतते बीतते वे कबाड में तब्दील होने लगती हैं । पर मोह उन्हें फेंकने से रोके रखता है । जब बच्चे थे , घर में एक कोना ऐसा था जिसे हम खड्डा कहा करते थे ।वहाँ हर वह चीज़ जो काम की नही थी आँख मून्दकर फेंक दी जाती थी । कुछ पुराने जूते-चप्पल, एक-दो बाल्टियाँ ,पुराना हीटर ,एक खराब प्रेस ,पुराने अखबार ,मैगज़ींस ,स्पेयर बर्तन जिनकी कब ज़रूरत पडने वाली है पता नही ,सब कुछ उस अन्धे कुएँ में चला जाता था अनंत काल के लिए ।धीरे-धीरे नया सामान आता और पहले का नया सामान पुराना पड़ जाता । और खड्डा फैलता जाता था ।छतों पर पुराने ज़माने के ब्लैक एण्ड वाइट टीवी और कुछ लकडियाँ बारिशों में भीगते रहें और उसकी लकड़ी फूलती रही ।बहुत् साल बाद उससे छुटकारा पाया । अब भी यही हाल है ।फर्क यह है कि अब कोई खड्डा नही । इस छोटे से तीन कमरों के घर में कबाड़खाना बनाने लायक जगह नही है । इसलिए कबाड़ और असल सामान में फर्क धीरे-धीरे मिटता जा रहा है । जो आज नया है कल कबाड हो जाता है ।समेटे नही सिमटता । फिर भी नए कपडे खरीदे जाते हैं , पुराने फट नही रहे पर फेड तो हो रहे हैं ;अलमारी को साँस नही आ रहा । धुले कपडे -मैले कपड़े -घर आकर उतारे गये कपड़े ,धोबन दे गयी जो कपड़ॆ ,ऑल्ट्रेशन को जाने वाले कपड़े , ड्राईक्लीनिंग से आये कपड़ॆ बच्चे के छोटे हो गये कपड़े ,सब जहाँ जगह मिलती है पसर जाते हैं ।एक टेबल है । उस पर किसका सामान हो यह लड़ाई रहती है । श्रीमान जी मेरा सामान शिफ्ट करते हैं ,पीछे से मैं उनका कर देती हूँ । बच्चे का कहाँ जाएगा अभी कैसे सोचें ।अपने से फुरसत नही ।रसोई कभी कभी ज्वालमुखी सी बाहर फट पड़्ने वाली सी दिखाई देती है ।झल्लाहट होती है ।सामान ही सामान है इस घर में । सदियों से पड़ी सड़ती एक चीज़ जैसे ही ठिकाने लगाओ दूसरे तीसरे दिन कोई पूछ लेता है उसके बारे में ।
बिल आते हैं ,चिट्ठियाँ आती हैं , बैंक वालों के नितनये चिट्ठे आते हैं ,कुछ ज़रूरी खत भी आते हैं । सब इकट्ठे होते हैं ,एक दिन ढेर बन जाने के लिए ,जिसमें से किसी दिन अचानक अड्रेस प्रूफ के तौर पर ढूंढना पड़ जाता है कोई बिल ,या कुछ और । और नही मिलता । पुरानी किताबें पढी नही जातीं नयी आ जाती हैं हर बुक फेयर से ।
एक वक़्त ऐसा भी शादी के बाद कि घर से खाली हाथ निकले थे ,साल भर के अन्दर बहुत बड़ी चीज़े न सही पर बहुतेरा सामान इकट्ठा कर लिया था । सिर्फ गृहस्थों का यह हाल नही ।एक मित्र अकेली रहती थीं । उन्होने भी धीरे-धीरे एक साम्राज्य खड़ा कर लिया था अपने आस-पास । लगभग हर घर में अब देखती हूँ एक स्टोर रूम है जहाँ कुछ भी लाकर पटका जा सकता है । किसी के आने की खबर पर जहाँ बहुत कुछ ठूंसा जा सकता हो । कबाडखाना अलग न हो तो सारा घर ही कबाड़ी की दुकान में तब्दील हो जाता है ।
कभी कभी सोचती हूँ एक आदमी हर वक़्त तैनात चाहिये घर को कबाड बनने से बचाने के लिए । पुराने सामान को झड़्ने पोंछने के लिए । रद्दी की सॉर्टिंग के लिए । उतारे गये जूतों और इस्तेमाल न होने वाले चप्पलों को सहेज कर रखने के लिए । गर्मियों के आने पर स्वेटर कम्बल पलंगों और अलमारियों में धँसाने के लिए, कोट -शॉलें ड्राइक्लीन कराकर सम्भालने के लिए ।जूठे बर्तनों को उठा कर रसोई में पहुँचाने के लिए ,चादरें और तकिये के लिहाफ बदलने के लिए ,रैक से बाहर टपकती किताबों को बार बार रैक में पहुँचाने ले लिए, अलमारियों में कपड़े लगातार ठिकाने पर रखते रहने के लिए .............खपते रहने के लिए .....कबाड़ सहेजते समेटते हुए .....कबाड़ बनते रहने के लिए ......
Thursday, March 13, 2008
अहा ! सोना !! कितना आह्लादकारी !!
अहा ! सोना !! कितना आह्लादकारी है !!बरसों से सोच रही हूँ जैसे द्विवेदीयुगीन {ठीक से याद नही आ रहा नाम }एक लेखक के लेख है -"दाँत", "हाथ","नाक""कान" ...... या शुक्ल जी के ही "लोभ और प्रीति" "भक्ति -श्रद्धा" वैसे ही मै अपने प्रिय विषय "नींद" पर लिख डालूँ कुछ तडकता -फडकता । जैसा कि मेरा ब्लॉगर प्रोफाइल कहता है - सोना मेरा एक शौक है ।जब और कोई काम न हो मुझे सिर्फ और सिर्फ सोना पसन्द है {वैसे जब बहुत काम हो तब भी मेरा यही मन होता है कि सो जाऊँ } खैर ,मैं ऐसी बडी सुआड {लिक्खाड की तर्ज पर} हूँ यह मैने औरों से ही जाना है । होश सम्भालते -सम्भालते यह मेरे बारे मे प्रसिद्ध हो चुका था कि मुझे जब भी जहाँ भी कहा जाये कि -चलो सो ओ । तो मै बिना एक पल भी देर किये सो जाऊंगी । एग्ज़ाम के दिनों जब तपस्या कर रहे होते थे एक आसन पर विराज कर, झाड -झंखाड की भांति आस-पास पुस्तकें फैला कर ,तो बडी कोफ्त होती थी रात में सबके सो जाने के बाद । मन से गालियाँ फूट पडती थी हर एक व्यक्ति के प्रति जो कहता था - "हम सोने जा रहे हैं ,गुडनाइट ! ठीक से पढना ।" रात के एक डेढ बजते बजते किसी के उठने की आहट होती तो बरबस मन चिल्ला पडता था ---"अरे ! कोई तो आकर कह दो ,बेटा अब सो जा बहुत पढ लिया ।" हँह !! एम. ए. मे लेकचर अटेंड नही कर पाती थी {ये और बात है कि अब लेक्चर देने में बडा आनन्द आता है}। हद तो यह थी कि मुझे अपने बस्ते में टॉफी , काजू . मिसरी ,इलायची वगैरह रख कर ले जाना पडता था कि जब भी लेक्चर सुनते- सुनते नीन्द अने लगे मुँह चलाना शुरु कर दूँ । जैसे मच्छर "ऑल-आउट " के आदि हो जाते हैं और ऑल -आउट के सर पर ही मंडराने लगते हैं , मेरे ऊपर मंचिंग का उपाय बेअसर होने लगा । मैने क्लास करना बहुत कम कर दिया ।यूं ही पढाई की । टॉप-शॉप भी किया पर सोने की ललक मन में हर पल मचलती थी ।
फिर नीन्द को करारा झटका लगा जब संतान ने जीवन में प्रवेश किया । यह मेरी नीन्द पर कुठाराघात था । जब नन्हा शिशु दुनिया में आया मैने उस पर एक नज़र डाली । बस!! काम खत्म !! और सुख की लम्बी नीन्द में कई दिन के लिए एक साथ डूब जाना चाहा । {एक माँ की ऐसी स्वीकारोक्ति बडी पतनशील है न! } मुझे बहुत दिन तक बच्चा अपना प्रतिद्वन्द्वी लगता रहा । कमबख्त सारी रात जगता और सुबह जब घर के सारे काम मुँह बाये खडे होते वह चैन की नीन्द सोता और हम काम करते । क्या कहूँ ,मेरी नीन्द पर किसी और की नीन्द भारी पडने लगी । किसी भी और माँ की तरह मुझे भी यह स्वीकार कर लेना पडा कि मेरे "मैं" से ऊपर किसी और का "उँए -उँए... " है ।
नौकरी करते ,सुबह तडके उठ रसोई निबटाते ,तीन बार बस बदल कर हाँफते-हाँफते ऑफिस पहुँचते , पढाई भी साथ -साथ करते ,यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से लौटते लौटते ,शाम को खाना बनाते और सबको खिलाते ,बच्चे को सुलाने के लिए बिस्तर पर धम्म से लेटते -लेटते यह हालत हो जाती कि अनायास मुख से निकलता था कि -
"ओह ! मैं कितनी खुशनसीब हूँ कि मुझे सोने को मेरा बिस्तर मिला और अटूट गहरी नीन्द !!"
पिछले दो-तीन दिन से एक प्रोजेक्ट के चलते नीन्द की शामत आ गयी थी । कल दिन भर से सर भन्ना रहा था और आँखों के आगे बस बिस्तर घूम रहा था । लोक-लाज का भय मिटाकर एक झपकी मैने कल के सेमिनार में कुर्सी पर बैठे -बैठे ले डाली । पर "ऊँट के मुँह में जीरा "साबित हुई। एक घटिया ,लकडी के फट्टे वाली कुर्सी पर भला क्या आराम मिलता । उलटा हाड-गोड दुख गये ।
घर पहुँच कर देखा सासू माँ ऑलरेडी थकान के कारण बीमार- सी पडी थीं । सर बस अब ज्यूँ फटा चाहता था ,आँखे बस अब बन्द हुआ चाह्ती थीं ,मन चीत्कार करना चाह्ता था ,लेकिन बेटे का स्कूल का होमवर्क कराना था ,सबको खाना खिलाना था । बहुत कर्म निबटाने थे । अंतत: डिस्प्रिन खा कर ,सर पर दुपट्टा बान्ध कर जब लेटी तो फिर मुँह से यही निकला -
"आह !! नीन्द कितनी आह्लादकारी है । कितनी अपनी है । कितनी सच्ची है । कितनी ज़रूरी है । मुझे दुनिया से छीन ले जाती है ,कहीं दूर ......परे ....बस मैं होती हूँ .....और नींद ...मेरे भीतर चुपचाप बहती सलिला सी ......जिसके किनारे पाँव डुबाये ,अकेली बैठ मैं जाने कितनी सदियों के लिए ऊर्जा समेट लेती हूँ ........."
Tuesday, March 4, 2008
कॉक्रोचों पर अत्याचार क्यों ?
नोट --ये एक अत्यंत गम्भीर पोस्ट है जो बहुत बडे प्रश्नों को उठाती है , कृपया इसे हास्य-व्यंग्य समझ कर अनदेखा न करें
कोई हमें निहायत असम्वेदनशील कहेगा अगर हम कॉक्रोचों का पक्ष लेने वालों पर हँसने लगें । आखिर वे भी इस जगत के जीव हैं और उन्हें भी किसी मच्छर मक्षिका की तरह जीने का हक है । और ब्लॉग बनाने का भी है । जब बैलों का हो सकता है तो कॉक्रोचेज़ का क्यो नही । हर जीव की अपनी उपयोगिता है । जीवन चक्र में से एक को भी माइनस कर दो तो सबै ब्योबस्था गडबडा जायेगी ।{खिचरी भाषा के लिये मुआफ करें , स्पॉंटेनिअस विचार ऐसी ही भाषा मे आते है :-)}आखिर कॉक्रोचेज़ कितने ज़हीन प्राणी होते हैं । और उतने ही सम्वेदनशील । जब हम लोग खा पी कर रात को चैन की बंसी वगैरह बजा रहे होते हैं तभी ये लोग दबे पाँव रसोई के अन्धेरे में उजागर होते हैं ,किसी देवदूत की तरह और सुनसान पडी रसोई को अपनी धमाचौकडी से गुलज़ार करते हैं । बेलन- कलछी -चम्मच के ये उजाड के साथी हैं ।ये न हों तो छिपकलियाँ क्या खाकर जियेंगी :-( पुरुषॉ को इनका विशेष आभारी होना चाहिये । ये विपदा बन कर स्त्री के सामने खडे हो जाते हैं और कामिनी को उनके नज़दीक लाते हैं । ये अपनी जनसंख्या को तेज़ी से बढाने मे माहिर है इस मायने में विशुद्ध भरतीय हैं । यूँ ही नही गूगल पर कॉकरोचेज़ के इतने सारे पेज दर्ज हैं ।वैसे आप सोच रहे होंगे कि इस कॉक्रोच - गुण -कथन का उद्देश्य क्या है । यूँ तो मानने को बहुतेरे हैं । न मानने को एक भी नही । पर फिलहाल एक सॉलिड कारण बता देते हैं ।
कॉक्रोचेज़ के प्रति हमारे मन में जो पूर्वाग्रह थे वे पिछले 15 दिन के मंथन के बाद दूर हुए । मंथन तब चालू हुआ जब हमने एक प्रेमी , अजी जीव-प्रेमी और कौन का प्रेमी ?, का "हिन्दुस्तान " में { हिन्दुस्तान दैनिक अखबार को कह रहे हैं , वैसे यह हिन्दुस्तान नामधारी राष्ट्र के नाम भी एक सन्देश ही समझा जाये } खेदजनक पत्र पढा जो उन्होने सम्पादक के नाम लिखा है । सम्पादक भी बडे रसिया हैं , मनबसिया हैं जो ऐसा पत्र छाप के होली की छेडछाड अडभांस में कर दिये हैं ।
पेश है पत्र -
क्या कोई और जीव भी ?
कॉलेजों में डिसेक्शन की प्रक्रिया के लिए महाराष्ट्र सहित देश भर के कॉक्रोचेज़ का प्रयोग हो रहा है । पहले मेंढक ,फिर चूहा और अब कॉकरोच ,विज्ञान के प्रयोगों के बलि चढते जा रहे हैं । कॉकरोच जैसे बेज़ुबान प्राणी पर यह अत्याचार ही तो है ।इस समाज में कॉकरोच गन्दगी का सूचक है तो क्या इनसान किसी से कम है ? महाराष्ट्र में क़ोलेज की डिसेक्शन प्रक्रिया के लिए एक -एक छात्र को असली आठ-आठ कॉकरोच चाहिये । यह कहाँ का इंसाफ है ? क्या पूरी कक्षा ही एक कॉकरोच से अपना प्रेक्टिकल पूरा नही कर सकती । पर्यावरण में कॉकरोचों का भी योगदान है । बच्चे कॉकरोचों से डरते नही । बल्कि इनकी मातारँ इनको दूध पिलाने के लिए कॉकरोचों से डराती हैं ।राजेन्द्र कुमार सिंह
से-15
रोहिणी
दिल्ली ।
{मुझे पूरा विश्वास है कि इस पत्र को सम्पादक ने एडिट किया है । जिस कारण हम कॉकरोच सम्बंन्धी अन्य कई महत्वपूर्ण जानकारियों से वंचित रह गये हैं । कोई भला मानस इस पत्र के लेखक को ब्ळॉग बनाकर अपनी बात कहने का लोकतांत्रिक माध्यम दिखाये ।}
तो दुनिया के कॉक्रोचेज़ एक हो जाओ !
हम बुद्धिजीवियों ने तुम्हारे लिये आवज़ बुलन्द की है । यूँ भी गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक कहती हैं न "कैन दि सबॉल्टर्न स्पीक ?" और ये भी कि बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे निम्नवर्ग , दलित , शोषित के लिये आवाज़ उठायें क्योंकि वे खुद नही उठा सकते ।
एक विपरीत मत ये भी है कि -
खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर स्प्रे से पहले , घर का मालिक तुझसे खुद पूछे -बता तरी रज़ा क्या है !वाह ! वाह!
अब ये कॉक्रोचेज़ का निजी मसला नही रहा । ये समाज का प्रश्न है जैसा कि राजेन्द्र जी ने अपने पत्र में कहा है । कृपया उदारता पूर्वक इस पर विचार करें ।
।
Saturday, February 16, 2008
पतनशीला पोस्ट ........
कितनी तल्खियाँ ,बेचैनियाँ हैं ...अतृप्त आत्माओं का संलाप- विलाप है ...व्यंग्य के माने समझने मे भी दिमाग में दर्द होने लगा .....दर्द अनरगल होने लगा....झरने लगा ....फेनिल दर्द !! बेदर्दी । हर्ट होने लगा । यू नो व्हेयर ? जस्ट हेयर !! दिल में ।प्लेन वनीला आइसक्रीम नही । झागदार आइसक्रीम ! ऐसे में हडबडिया पोस्ट ही आयेगी न !बूढे भंगड समझते क्यो नही ![या सब समझ जाते हैं...होपलेसली पतनशील बूढाज़ !!] जलेबी सी बात करते हैं । व्यंग्य का बडा शौक है ? पतन नज़दीक है , देख रखना ।आखिर क्या ज़रूरत थी ? कहना नही आता तो चुप क्यो नही रहते । व्यक्ति और विचार में फर्क नही कर सकते ?गॉन आर द डेयज़ ...जब तुमहारा ज़िक्र था ...पर ...
पर हमसे मतलब ? हमें क्यूँ बहस में कूद फान्द करने की पडी है । अब्बी , बस अब्बी कोई गरिया जाएगा ।आखिर क्या ज़रूरत थी ? कहना नही आता तो चुप क्यो नही रहते । डैम्म.....!! आये मेरी बला से । पर फेनिल दर्द रिस क्यूँ रहा है ? बेतरह !! कब तक ?
खैर छोडो । अपनी पोस्ट ठेलो । शांति से खेलो , खेल जो खेलना है । उबलो नही वर्ना गिर पडोगे ।
अपना तो राजनीति में विश्वास नही । सीधे सीधे लिखे जायेंगे ।आप्को लगती हो राजनीति तो लगा करे । हमसे मतलब ?
ऐसा नही कि नाम लेते डरते हैं हम । पर ये अपना इश्टाइल है । और नाम भी कितने लें । एक हो तो लें भी ।
कुछ सवाल अब भी मुँह बाए खडे हैं लाजवाब हैं । लाइलाज हैं । संगत कुसंगत हो गयी । । पर सवाल अब भी लाइलाज़ !! ।हम नही देखेंगे उन्हें ।कौन क्या है ? हमे क्या ? हमारी बला से। पर अतृप्त आत्माएँ अब भी रुदाली बनी हैं ...और उस पर फेनिल झरझराता , झबराया ,गदराया,फुँफकारता दर्द !!
नोट-- इस पोस्ट का कोई अर्थ नही है । यदि किसी को लगता हो तो लगे , हमारी बला से !!!
पर हमसे मतलब ? हमें क्यूँ बहस में कूद फान्द करने की पडी है । अब्बी , बस अब्बी कोई गरिया जाएगा ।आखिर क्या ज़रूरत थी ? कहना नही आता तो चुप क्यो नही रहते । डैम्म.....!! आये मेरी बला से । पर फेनिल दर्द रिस क्यूँ रहा है ? बेतरह !! कब तक ?
खैर छोडो । अपनी पोस्ट ठेलो । शांति से खेलो , खेल जो खेलना है । उबलो नही वर्ना गिर पडोगे ।
अपना तो राजनीति में विश्वास नही । सीधे सीधे लिखे जायेंगे ।आप्को लगती हो राजनीति तो लगा करे । हमसे मतलब ?
ऐसा नही कि नाम लेते डरते हैं हम । पर ये अपना इश्टाइल है । और नाम भी कितने लें । एक हो तो लें भी ।
कुछ सवाल अब भी मुँह बाए खडे हैं लाजवाब हैं । लाइलाज हैं । संगत कुसंगत हो गयी । । पर सवाल अब भी लाइलाज़ !! ।हम नही देखेंगे उन्हें ।कौन क्या है ? हमे क्या ? हमारी बला से। पर अतृप्त आत्माएँ अब भी रुदाली बनी हैं ...और उस पर फेनिल झरझराता , झबराया ,गदराया,फुँफकारता दर्द !!
नोट-- इस पोस्ट का कोई अर्थ नही है । यदि किसी को लगता हो तो लगे , हमारी बला से !!!
Friday, February 8, 2008
स्त्री एक पज़लिंग, अनरेलायबल मिस्ट्री है?
बिलाग के बाबा लोग और बडका लोग चोखेर बाली को समझ नही पा रहे । यू नो वाय ? अबे ,तिरिया चलित्तर को जब भगवान नही समझ सका तो तू तो आदमी है ; गलतियों का पिटारा , बेचारा । औरत को समझने में पूरी ज़िन्दगी इहाँ उँहा झक मारता रह जाता है ।कमबख्त ! समझ नही आता आखिर चाहती क्या है । पाँयचा दो गिरेबाँ पकडती है । देखो शर्त मानी शांतनु ने और उल्लू बना । बाबा लोग को उनसे बडा हमदर्दी है । क्या है कि एक उत्पीडित मेने सेल बानाय का है अबी , इसी टाइम । बहुत हुआ !पत्नी खाना नही बनाती ? ब्लॉगिंग करती है ? फेमिनिस्म का डर दिखाती है ? एकजुट होकर झण्डा उठाती है ? सम्वाद चाहती है ?? मिस्ट्री बनती जा रही है ? तो उत्पीडित पति मिलें ---- अध्यक्ष ,मेन सेल । ब्लॉग पर आ रही हैं ,चलो आने दिया । जाने इनके पति क्या खाकर जीते होंगे [ब्लॉगिंग से फुर्सत हो तो खाना बनाएँ ! उँह! ] कविता लिखी , लिखने दी ।हमने वाह वाह ही की । विमर्श करने लगी , हमने कहा लगे रहो अच्छा लिख लेती हो । विवाद में पडना चाहा , सो हमने रोका । माने नही , बुरी-भली सुन के मानीं । पाब्लो फाब्लो पढने लगीं । चलो वह भी कर लेने दिया । अब ई का बला है ?? ओह मैन ! विमेन विल बी विमेन आल्वेज़ ! सैड्ड्ड !इतनी आवाज़ उठाकर भी कहती है आवाज़ बुलन्द् करो !
देखो , सीधी बात है ।इतना टाइम नही , सम्वाद फम्वाद , मवाद ,विवाद करने को । शुरु से यही सिखाया गया है - औरत एक मिस्ट्री है , कोई समझ न पाया , ऐसी ही इसकी हिस्ट्री है । इसलिए चाह कर भी इसके पास नही गये कभी डर से । हनुमान जी को याद किया । जब पास आये तो मुकाबला कर लेंगे इस मर्दानगी के अहसास से आये । वह कभी नही बोली ।खुल के बोलती ही नही हमारी तरह ;कैसे समझें । बोलने का कल्चर ही नही मिला ! तो टाइम बर्बाद करने का नही ।
वैसे भी इन्हें कभी संतोष नही होने का ।ये नया शगल कर देखने दो । स्त्रियाँ ही पढें , वे ही लिखें । उनकी दुनिया उन्हें मुबारक।तुम वहाँ मत जाना । जाने क्या चक्रव्यूह रचा है । एक बार कह दिया , हम साथ हैं सार्थक सम्वाद चाहते हैं तो गला पकड लेंगी । करना रोज़ सम्वाद । हम ताली बजाएँगे, तुम गाल बजाना । ओके ।
कबीर ने भी कह दिया है वही जो हम कह रहे हैं
"नारी की झाँई परत अन्धा होत भुजंग " साँप तक अन्धा हो जाता है हम तो....
वह महाठगिनी है । हमसे पूछो ।आस्क मेन ।जाना ही है पास तो सचेत जाओ । एजेन्डा साफ हो ।
देखो , सीधी बात है ।इतना टाइम नही , सम्वाद फम्वाद , मवाद ,विवाद करने को । शुरु से यही सिखाया गया है - औरत एक मिस्ट्री है , कोई समझ न पाया , ऐसी ही इसकी हिस्ट्री है । इसलिए चाह कर भी इसके पास नही गये कभी डर से । हनुमान जी को याद किया । जब पास आये तो मुकाबला कर लेंगे इस मर्दानगी के अहसास से आये । वह कभी नही बोली ।खुल के बोलती ही नही हमारी तरह ;कैसे समझें । बोलने का कल्चर ही नही मिला ! तो टाइम बर्बाद करने का नही ।
वैसे भी इन्हें कभी संतोष नही होने का ।ये नया शगल कर देखने दो । स्त्रियाँ ही पढें , वे ही लिखें । उनकी दुनिया उन्हें मुबारक।तुम वहाँ मत जाना । जाने क्या चक्रव्यूह रचा है । एक बार कह दिया , हम साथ हैं सार्थक सम्वाद चाहते हैं तो गला पकड लेंगी । करना रोज़ सम्वाद । हम ताली बजाएँगे, तुम गाल बजाना । ओके ।
कबीर ने भी कह दिया है वही जो हम कह रहे हैं
"नारी की झाँई परत अन्धा होत भुजंग " साँप तक अन्धा हो जाता है हम तो....
वह महाठगिनी है । हमसे पूछो ।आस्क मेन ।जाना ही है पास तो सचेत जाओ । एजेन्डा साफ हो ।
Tuesday, February 5, 2008
ब्लॉगिंग और पाब्लो नेरुदा पढने में कोई फर्क नही है ....
शॉपिंग के लिए जाती औरतें ,करवाचौथ का व्रत करती औरतें , सोलह सोमवार का उपास करती औरतें , होली पर गुझियाँ बनाती औरतें , पडोसिन से गपियाती औरतें -- अजीब नही लगतीं । बहुत सामान्य से चित्र हैं । लेकिन व्रत ,रसोई,और शॉपिंग छोड कर ब्लॉगिंग करती या पाब्लो नेरुदा पढती औरतें सामान्य बात नही । यह समाजिक अपेक्षा के प्रतिकूल आचरण है। आपात स्थिति है यह । ब्लॉगिंग और नेरुदा पति ही नही बच्चों के लिए भी रक़ीब हैं । यह डरने की बात है । अनहोनी होने वाली है । सुविधाओं की वाट लगने वाली है । स्त्री क्यो इतना डराती है ? पहले ही समाज कितना डरता है ?यदि उसने अपनी असंख्य सम्भावनाओं को एक्स्प्लोर कर लिया फिर क्या वो बन्ध कर रहेगी एक परिवार ,पति प्रेमी से ? फिर क्यों पकवान बना बना तुम्हें पेट के रास्ते रिझाएगी ?उसने आइना ढूंढ लिया तो अनर्थ हो जाएगा । डरो ,डरो ,स्त्री से । उसका डर ही तुम्हे हिंसक बनाएगा । क्योंकि तुम उसे नही बान्ध पाए तो तुम्हे बन्धना होगा ;वह तुमसे ऊंचा उडने लगेगी ।उसे अपनी जगह ,अपना कमरा , अपना आउटलेट मत दो । अपना कुछ मत दो । सम्पत्ति भी नही ,संतति भी नही । एक म्यान में दो तलवारें कैसे भी नही रह पाएँगी । सृष्टि का आधार नष्ट हो जाएगा ।
उसे समझाओं ....ब्लॉगिंग सिर्फ कृष्ण प्रेम की कविताएँ चेपने के लिए है ,रेसिपी लिखने के लिए है ,विमर्श करने के लिए नही । किताबें सिर्फ पढने के लिए हैं ,उनसे ज़िन्दगी नही चलती । इसके लिए किताबी दुनिया और असल दुनिया में अन्तर बढाओ , फासले पटने मत दो । तुम समझते नही हो , दिस इज़ अ सीरियस मैटर ।
उसे समझाओं ....ब्लॉगिंग सिर्फ कृष्ण प्रेम की कविताएँ चेपने के लिए है ,रेसिपी लिखने के लिए है ,विमर्श करने के लिए नही । किताबें सिर्फ पढने के लिए हैं ,उनसे ज़िन्दगी नही चलती । इसके लिए किताबी दुनिया और असल दुनिया में अन्तर बढाओ , फासले पटने मत दो । तुम समझते नही हो , दिस इज़ अ सीरियस मैटर ।
Monday, February 4, 2008
घास बस मेरी तरह है...
बहुत कुछ अलग है हर स्त्री में । फिर भी अनुभवों का एक अन्धेरा कोना सभी का एक सा है।इसलिए तो सीमाओं के पार भी एक संसार है जो सीमातीत है ।पाकिस्तानी कवयित्री - किश्वर नाहिद की यह कविता बहुत प्रभावित कर गयी । सोचा क्यो न आप लोगो से इसे बाँटा जाए।
घास भी मेरी तरह है-
पैरों तले बिछ कर ही पूरी होती है
इच्छा इसके जीवन की ।
गीली होने पर, क्या होता है इसका अर्थ?
लज्जित होने की जलन ?
या आग वासना की?
घास भी मेरी तरह है-
जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य
आ पहुँचता है कटाई करने वाला,
उन्मत्त ,बना देने को इसे मुलायम मखमल
और कर देता है इसे चौरस।
इसी तरह मेहनत करते हो तुम
औरत को भी चौरस करने की ।
न तो खिलने की इच्छा पृथ्वी की,
न ही औरत की ,मरती है कभी ।
मेरी बात पर ध्यान तो,वह विचार
रास्ता बनाने का ठीक ही था।
जो लोग सह नही पाते हैं बिगाड
किसी परास्त मन का
वे बन जाते हैं पृथ्वी पर एक धब्बा
और तैयार करते हैं रास्ता दमदारों के लिए-
भूसी होते हैं वे
घास नही ।
घास बस मेरी तरह है ।
अनुवाद-मोज़ेज़ माइकेल
कहती हैं औरते -सं -अनामिका ,साहित्य उपक्रम ,इतिहास बोध प्रकाशन ,2003
घास भी मेरी तरह है-
पैरों तले बिछ कर ही पूरी होती है
इच्छा इसके जीवन की ।
गीली होने पर, क्या होता है इसका अर्थ?
लज्जित होने की जलन ?
या आग वासना की?
घास भी मेरी तरह है-
जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य
आ पहुँचता है कटाई करने वाला,
उन्मत्त ,बना देने को इसे मुलायम मखमल
और कर देता है इसे चौरस।
इसी तरह मेहनत करते हो तुम
औरत को भी चौरस करने की ।
न तो खिलने की इच्छा पृथ्वी की,
न ही औरत की ,मरती है कभी ।
मेरी बात पर ध्यान तो,वह विचार
रास्ता बनाने का ठीक ही था।
जो लोग सह नही पाते हैं बिगाड
किसी परास्त मन का
वे बन जाते हैं पृथ्वी पर एक धब्बा
और तैयार करते हैं रास्ता दमदारों के लिए-
भूसी होते हैं वे
घास नही ।
घास बस मेरी तरह है ।
अनुवाद-मोज़ेज़ माइकेल
कहती हैं औरते -सं -अनामिका ,साहित्य उपक्रम ,इतिहास बोध प्रकाशन ,2003
Tuesday, January 29, 2008
जादा तकलीफ है तो ऑटो में जाया करो ना ....यहाँ तो ऐसे ही होता है
वह जितनी जगह छोड रही थी,वो उतनी जगह घेरता जा रहा था । वह सिमट रही थी। वो फैल रहा था ।कुछ नया नही हो रहा था।हमेशा से ऐसा ही चला आ रहा था ।अपनी जगह न छोडने का मतलब था अनचाहे ,बेढंगे ,बेहूदे स्पर्श को झेलना । डटे रहना सही है या सिमटना । खिडकी के पास वाली सीट पर एक हद के बाद सिमटने को जगह ही कहाँ बची थी । उसने झटके से सीट से उठते हुए मन में कुछ गालियाँ बकी और खडी हो गयी । उस आदमी ने और बाकी औरतों-मर्दों ने उसे विचित्र दृष्टि से देखा मानो कहते हों- बडी सनकी है ,स्टाइल मार रही है, हुँह !!। ये उसकी बेवकूफी थी । इतनी मुश्किल से तो ब्लूलाइन बस में जगह मिलती है , देखो पगली उसे छोड तन कर खडी हो गयी ।अब खाओ आजू- बाजू वालों के धक्के । उसने घूरा ।"क्या मैडम ! अपन को मत घूरो , बस में साला भीड ही इतनी ऐ, तिल धरने की जगह नही ऐ, जादा तकलीफ होती है तो औटो में जाया करो ना ,और वैसे भी अपन को शौक नई है तुम्हारे ऊपर गिरने का...[धीमे से कहा ]वैसे भी इतनी खूबसूरत नही है स्स्सा#@ंं"बस में कुछ घट गया था । शायद किसी का बटुआ मारा गया था , आंटी चिल्ला रही थी ।अफरा-तफरी मची हुई थी, वो तीन लौंडे बस के ठीक पीछे से भीड को कुचलते हुए आगे के दरवाज़े तक पहुँच रहे थे चोर को स्टॉप पर उतरने न देने के लिए। "अबे , पकडो साले को भैंन की .. साले ...कमीन ..साले " वे दबादब गालियाँ दे रहे थे एकाएक जैसे भीड पागल हो गयी थी। महिलाएँ महिलाओं की सीट पर चुप पडी थीं । लौंडे और बाकी आदमी सबको धकियाते , किसी का जूता,किसी का पैर ,किसी का सर कुचलते हुए आगे जा रहे थे । आपात स्थिति थी । कुछ पलों की इस धकम पेल में दम घुटने को आया ।पैर कुचला गया था । दुपट्टा भीड में जाने कहाँ खिंच गया था । आगे से बचने की कोशिश में पीठ पर कन्धे पर निरंतर थापें पडी थीं । बस रोकी गयी थी । नीचे वो चोर् पिट रहा था और उसकी माँ- बहन एक कर दी गयी थी । अब सब शांत था , लौंडे वापस सवार हुए । बस चल पडी । लौंडे पीछे खडे अपनी मर्दानगी का हुल्लास प्रकट कर रहे थे और सगर्व उसकी ओर देख रहे थे । अधेड पुरुष धूर्त मुस्कान के साथ उनके समर्थन में थे ।' भैय्या तैने सई करी , वाकी खाल उधेर दी साला चो..'अगले स्टॉप पर बस रुकी । उसने निश्चय किया । उतरना आसान नही था । आगे निकलने के लिए जगह आसानी से नही बनाते दोनो ओर की सीटों पर लटकी सवारियाँ। मन कडा किया आंखें बन्द की तीर सी सीधी बाहर । नीचे उतरी .राहत तो थी । दूसरी बस का इंतज़ार करने लगी । पन्द्रह मिनट बीते पर एक बस आ पहुँची ; दरवाज़ों से लटकते शोहदे । वो उतरेंगे । फिर तुम्हें चढाएंगे । फिर यथास्थान आ जाएंगे । हँसती -खिलखिलाती वे पाँचों लडकियाँ उसके देखते देखते समा गयीं । बस के भीतर कहाँ । नही पता । उनके पास कोई समाधान न था । उसकी हिम्मत नही हुई ।पहले सीट छोडी, फिर बस । अब क्या ?एक दिन औटो , दो दिन तीन दिन ।नही । सम्भव नही । उसे याद आया । उस दिन औटो वाला 50 रु में माना था ।
उसने कहा 'मीटर से तो 35 ही आते है'
'तो मीटर वाला ढूंढ लो '
मजबूरी थी । आस पास कुछ और नही था । देर अलग हो रही थी।
10 मीटर चल कर पान के खोके पर लाकर रोक दिया ।
'क्या हुआ भैय्या'
'...'
'क्या हुआ ?'
'..'
वह चला गया । पान मसाला लिया । पैकेट खोला ,बडे अन्दाज़ से खडा होकर मुँह में भरा । पानवाडी से बतियाने लगा । उसका गुस्सा पार हो चुका था । वह उतरी और चिल्लाई ।
'ये क्या बकवास है ; पागल दिखती हूँ जो यहाँ लाकर खडा कर दिया है ? चलता क्यो नही है '
बिना विचलित हुए उसने कहा' अरे मैडम , अभी तो गैस भी भ्ररवानी है आगे वाले पम्प से , आप बैठो आराम से ज़रा '
वह उबल पडी 'बदतमीज़ आदमी ! पहले नही बोल सकता था गैस भरवानी है पान खाना है,पेशाब करना है। आराम से बैठो ?? आराम से बैठ्ने का टाइम होता तो ऑटो लेती मैं ?'मन हुआ एक झापड धर दे मुँह पर ।
वह अविचलित । बुडबुडा रहा था । उसे समझ आ गया था । यहाँ बेकार है गुस्सा करना भी ।नम्बर नोट किया । कम्पलेंट करने को ।
वापस चल पडी , जहाँ से चली थी ।
उसने कहा 'मीटर से तो 35 ही आते है'
'तो मीटर वाला ढूंढ लो '
मजबूरी थी । आस पास कुछ और नही था । देर अलग हो रही थी।
10 मीटर चल कर पान के खोके पर लाकर रोक दिया ।
'क्या हुआ भैय्या'
'...'
'क्या हुआ ?'
'..'
वह चला गया । पान मसाला लिया । पैकेट खोला ,बडे अन्दाज़ से खडा होकर मुँह में भरा । पानवाडी से बतियाने लगा । उसका गुस्सा पार हो चुका था । वह उतरी और चिल्लाई ।
'ये क्या बकवास है ; पागल दिखती हूँ जो यहाँ लाकर खडा कर दिया है ? चलता क्यो नही है '
बिना विचलित हुए उसने कहा' अरे मैडम , अभी तो गैस भी भ्ररवानी है आगे वाले पम्प से , आप बैठो आराम से ज़रा '
वह उबल पडी 'बदतमीज़ आदमी ! पहले नही बोल सकता था गैस भरवानी है पान खाना है,पेशाब करना है। आराम से बैठो ?? आराम से बैठ्ने का टाइम होता तो ऑटो लेती मैं ?'मन हुआ एक झापड धर दे मुँह पर ।
वह अविचलित । बुडबुडा रहा था । उसे समझ आ गया था । यहाँ बेकार है गुस्सा करना भी ।नम्बर नोट किया । कम्पलेंट करने को ।
वापस चल पडी , जहाँ से चली थी ।
Wednesday, January 16, 2008
..बराबरी मत माँगो वर्ना सम्मान नही मिलेगा .
बात ज़रा कठिन अन्दाज़ से शुरु कर रही हूँ पर है उतनी ही आसान । टॉमस एस कुह्न ने अपनी किताब वैज्ञानिक क्रांतियों की संरचना में प्रतिमान -परिवर्तन का नियम देते हुए कहा - प्रतिमान परिवर्तन का तरीका यह नही है कि विरोधियों को कनविंस किया जाएगा बल्कि यह है कि विरोधी अंत में मारे जाते हैं ।
बेशक सचमुच में नही । मारे जाने का अर्थ प्रतीकात्मक है :)। काकेश के ब्लॉग पर जो विमर्श हुआ बिना लाग लपेट के कहा गया और टिप्पणियाँ भी अलग से दर्ज की गयीं । घुघुती जी ने करारे और कडे जवाब दिए । बहुत से मेरे मन की बातें कह दीं ।
महिलाओ से सम्बन्धित बातें उठाने और विमर्श करने पर फेमिनिस्ट तो करार दे ही दिया गया है पर इतना समझ आ गया है कि मेरे ,घुघुती जी ,नीलिमा, रंजना ,रचना ,स्वप्नदर्शी व अन्यों को केवल उस पल का इंतज़ार करना है जब स्त्री को देखने के नज़रियों [स्त्री के खुद को देखने और दूसरो की नज़र में भी]में परिवर्तन आने से विरोधियों का नाश हो जाएगा क्योंकि काकेश के यहाँ टिप्पणियाँ दिखा रही हैं कि वे कनविंस होने की स्थिति में तो बिलकुल नही हैं ।
कमाल कर दिया है आदम जी ने तो -
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इस समझ का कोई जवाब दिया जा सकता है ? इस तरह की सोच का केवल संहार किया जा सकता है ।
इन्हें कोई बराबरी , खासतौर से स्त्री-पुरुष की बराबरी का मतलब समझा सकता है ?
मैने बार बार कहा है कि बाज़ारवाद ने पितृसत्ता के औजारों और शोषण के तरीकों को और भी महीन और बारीक बनाया है । कुछ ऐसा कि शोषित को खुद पता नही चलता कि उसका शोषण हो रहा है ।वह उसे आत्मसात कर लेता है ।सो , जब औटो एक्स्पो में कारों के साथ खडी हॉट माडलों की खटाखट तस्वीरें पुरुष भीड उतार रही थी , उस समय वह मॉडल खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी ।क्यों ? स्त्री के सेक्सी और हॉट होने का पैमाना कौन तय करता है ? कौन तय करता है कि उसका मुख्य काम पुरुष की दृष्टि में सुन्दर और उपयोगी साबित होना है ?
और बराबरी की बात ? वह भी तो पुरुष का ही मान दण्ड है । कैसा धोखा है देखिये । अच्छा , शोर मचा रही हैं बेवकूफ समाजवादी औरतें ,चलो , सोचते हैं ,पर पहले हमारी बराबरी हर फील्ड में कर के दिखाओ । तब हम तुम्हे स्वतंत्रता दे देंगे ।मान लेंगे कि तुम स्वतंत्रता के काबिल हो ।चक दे इंडिया इसलिए बार बार याद आती है । लडकियों की टीम को विश्व कप हॉकी में भाग लेने से पहले अपनी योग्यता साबित करने के लिए पुरुषों की टीम से लडने के लिए कहा जाता है । पुरुष आइना बना खडा है हर ओर । उसी में झाँक कर अपना अस्तित्व साबित करना है । क्यों ?
आदम ने साफ कहा , बराबरी मत माँगो वर्ना सम्मान नही मिलेगा । यह चेतावनी है । यह अन्डरटोन है। और हम अब पढ सकते है अनलिखा, सुन सकते हैं अनलिखा , देख सकते हैं छिपा हुआ । यही तो डर है आदम को भी आदमी को भी पितृसत्ता को भी ।
मैने <पहले भी लिखा था कि बराबरी का मतलब यह नही कि हम एक दूसरे के प्रति असम्वेदन शील हो जाएँ इस तरह कि बस ,रेल,मेट्रो में किसी महिला को असुविधाजनक स्थिति में खडे देख बैठे बैठे यह सोचें कि -हुँह , बराबरी चाहिये थी न ,लो अब खडी रहो और हो जाओ बराबर , हमने तो कहा था कि घर बैठो आराम से। रेप होते चुपचाप देखेंगे या सहयोग देंगे क्योंकि उकसाया तो तुम्ही ने था न ....
भई हमारी बराबरी करने निकलोगी तो सडक पर छेडेंगे,
ऑफिस में फब्तियाँ कसेंगे,
घर में ताने देंगे,
मीडिया मे चरित्र पर लांछन लगायेंगे ,
पुरुष मित्रों को एकत्र कर जीना मुहाल कर देंगे,
फिर भी न मानी तो रेप करेंगे ,
तब तक जब तक कि खुद ही हमारे पहलू में आ कर न गिर जाओं ......और
तब भी बख्शा नही जाएगा , आखिर कैसे बराबरी करने निकलीं । घर में सम्मानित माँ ,बेटी, पत्नी बहन बन कर रहने में क्या बुराई थी ? पर तुम खुद ही चाहती हो कि पुरुष तुम्हें देखें, तुम्हारे पीछे पडें ....तिरिया चरित्र ... भगवान भी नही समझ सका .... पहेली बना देंगे तुम्हे.. अबूझ ... ताकि तुम्हे समझने का दुस्साहस ही न करे कोई ...स्त्रियां सम्मान चाहती हैं तो परिवार के बीच सुरक्षित रहें ..... और वेश्यालयों में जाने वाले ?
पिता ,भाई, बेटे ,पति को अब भी यह मानने में संकोच है कि स्त्री परिवार संरचना के भीतर भी उतनी ही प्रताडित है जितनी कि परिवार संरचना से बाहर । अविवाहित स्त्री को भी नही बख्शते ,विधवा को भी नही, वेश्यालयो को भी नही और पत्नियों को भी नही ।
इसलिए बदलते प्रतिमानों के इस युग में स्त्री-विरोधी समझाने से नही मानने वाले , वे मारे जाने वाले हैं । चाहे इसमें 100 साल और लग जाएँ ।
बेशक सचमुच में नही । मारे जाने का अर्थ प्रतीकात्मक है :)। काकेश के ब्लॉग पर जो विमर्श हुआ बिना लाग लपेट के कहा गया और टिप्पणियाँ भी अलग से दर्ज की गयीं । घुघुती जी ने करारे और कडे जवाब दिए । बहुत से मेरे मन की बातें कह दीं ।
महिलाओ से सम्बन्धित बातें उठाने और विमर्श करने पर फेमिनिस्ट तो करार दे ही दिया गया है पर इतना समझ आ गया है कि मेरे ,घुघुती जी ,नीलिमा, रंजना ,रचना ,स्वप्नदर्शी व अन्यों को केवल उस पल का इंतज़ार करना है जब स्त्री को देखने के नज़रियों [स्त्री के खुद को देखने और दूसरो की नज़र में भी]में परिवर्तन आने से विरोधियों का नाश हो जाएगा क्योंकि काकेश के यहाँ टिप्पणियाँ दिखा रही हैं कि वे कनविंस होने की स्थिति में तो बिलकुल नही हैं ।
कमाल कर दिया है आदम जी ने तो -
इन बैवकुफ समाज वादी औरतो को भी नहीं पता ये समाज का कितना अहित कर रही है।।
एक औरत अपने स्त्री होने का फायदा उठा कर पुरूष से ज्यदा माल बेचती है तब उसे याद नही आती बराबरी
कई बस में सफर कर रहे हो या ट्रैन के टिकट की लाईन हो क्यों इन्हें बराबर नही रखा जाता वास्तव में प्रकृति ने हम सभी को अलग अलग रोल दिये हैं और हमें ये करने होंगे। क्यों बराबर धरती नहीं है कही पहाड तो कही तलाब, क्यों बराबर ऋतु नही हैं। आखिर पुरूष तो बराबरी कर 9 मास तक बच्चे को पेट में नहीं रख सकता।
अगर स्त्रियाँ सम्मान चाहती है तो मेरी राय में रात को 2 बजे शराब पीकर समुद्र पर धुमना सम्मान नहीं दिला सकता इस दौड में कई आज कल धुम्रपान मदिरा पान कर रही है कल क्या वो बराबर होकर पुरूष की तरह बलात्कार करना पसंद करेंगी
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इस समझ का कोई जवाब दिया जा सकता है ? इस तरह की सोच का केवल संहार किया जा सकता है ।
इन्हें कोई बराबरी , खासतौर से स्त्री-पुरुष की बराबरी का मतलब समझा सकता है ?
मैने बार बार कहा है कि बाज़ारवाद ने पितृसत्ता के औजारों और शोषण के तरीकों को और भी महीन और बारीक बनाया है । कुछ ऐसा कि शोषित को खुद पता नही चलता कि उसका शोषण हो रहा है ।वह उसे आत्मसात कर लेता है ।सो , जब औटो एक्स्पो में कारों के साथ खडी हॉट माडलों की खटाखट तस्वीरें पुरुष भीड उतार रही थी , उस समय वह मॉडल खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी ।क्यों ? स्त्री के सेक्सी और हॉट होने का पैमाना कौन तय करता है ? कौन तय करता है कि उसका मुख्य काम पुरुष की दृष्टि में सुन्दर और उपयोगी साबित होना है ?
और बराबरी की बात ? वह भी तो पुरुष का ही मान दण्ड है । कैसा धोखा है देखिये । अच्छा , शोर मचा रही हैं बेवकूफ समाजवादी औरतें ,चलो , सोचते हैं ,पर पहले हमारी बराबरी हर फील्ड में कर के दिखाओ । तब हम तुम्हे स्वतंत्रता दे देंगे ।मान लेंगे कि तुम स्वतंत्रता के काबिल हो ।चक दे इंडिया इसलिए बार बार याद आती है । लडकियों की टीम को विश्व कप हॉकी में भाग लेने से पहले अपनी योग्यता साबित करने के लिए पुरुषों की टीम से लडने के लिए कहा जाता है । पुरुष आइना बना खडा है हर ओर । उसी में झाँक कर अपना अस्तित्व साबित करना है । क्यों ?
आदम ने साफ कहा , बराबरी मत माँगो वर्ना सम्मान नही मिलेगा । यह चेतावनी है । यह अन्डरटोन है। और हम अब पढ सकते है अनलिखा, सुन सकते हैं अनलिखा , देख सकते हैं छिपा हुआ । यही तो डर है आदम को भी आदमी को भी पितृसत्ता को भी ।
मैने <पहले भी लिखा था कि बराबरी का मतलब यह नही कि हम एक दूसरे के प्रति असम्वेदन शील हो जाएँ इस तरह कि बस ,रेल,मेट्रो में किसी महिला को असुविधाजनक स्थिति में खडे देख बैठे बैठे यह सोचें कि -हुँह , बराबरी चाहिये थी न ,लो अब खडी रहो और हो जाओ बराबर , हमने तो कहा था कि घर बैठो आराम से। रेप होते चुपचाप देखेंगे या सहयोग देंगे क्योंकि उकसाया तो तुम्ही ने था न ....
भई हमारी बराबरी करने निकलोगी तो सडक पर छेडेंगे,
ऑफिस में फब्तियाँ कसेंगे,
घर में ताने देंगे,
मीडिया मे चरित्र पर लांछन लगायेंगे ,
पुरुष मित्रों को एकत्र कर जीना मुहाल कर देंगे,
फिर भी न मानी तो रेप करेंगे ,
तब तक जब तक कि खुद ही हमारे पहलू में आ कर न गिर जाओं ......और
तब भी बख्शा नही जाएगा , आखिर कैसे बराबरी करने निकलीं । घर में सम्मानित माँ ,बेटी, पत्नी बहन बन कर रहने में क्या बुराई थी ? पर तुम खुद ही चाहती हो कि पुरुष तुम्हें देखें, तुम्हारे पीछे पडें ....तिरिया चरित्र ... भगवान भी नही समझ सका .... पहेली बना देंगे तुम्हे.. अबूझ ... ताकि तुम्हे समझने का दुस्साहस ही न करे कोई ...स्त्रियां सम्मान चाहती हैं तो परिवार के बीच सुरक्षित रहें ..... और वेश्यालयों में जाने वाले ?
पिता ,भाई, बेटे ,पति को अब भी यह मानने में संकोच है कि स्त्री परिवार संरचना के भीतर भी उतनी ही प्रताडित है जितनी कि परिवार संरचना से बाहर । अविवाहित स्त्री को भी नही बख्शते ,विधवा को भी नही, वेश्यालयो को भी नही और पत्नियों को भी नही ।
इसलिए बदलते प्रतिमानों के इस युग में स्त्री-विरोधी समझाने से नही मानने वाले , वे मारे जाने वाले हैं । चाहे इसमें 100 साल और लग जाएँ ।
Tuesday, January 8, 2008
Tuesday, January 1, 2008
तस्लीमा के नाम एक पाती यह भी ....
अभी जनवरी का हंस देख रही हूँ .. अभिषेक-ऐश्वर्य के विवाह पर मीडिया द्वारा प्रचारित बातों को लेकर राजेन्द्र यादव और अमिताभ बच्चन के बीच का पत्र व्यवहार राजेन्द्र जी ने छापा है । पर एक खत खासा आकर्षित कर रहा है । उसे दो तीन बार पढ चुकी हूँ ।कुछ निष्कर्ष भी निकालने की कोशिश में हूँ ।यह पत्र है आचार्य रजनीकांत का , रायबरेली से ,तस्लीमा नसरीन के नाम । आप खुद पढें और कुछ कहते बने तो कहें -
तस्लीमा जी,
नमस्कार !
मैं बंगाली भाषा नही जानता.इसलिए मैं हिन्दी में पत्र लिख रहा हूँ. इस विवशता को क्षमा करने की कृपा करें.
मैं हिन्दी का कवि,उपन्यासकार,नाटककार हूँ,रायबरेली का मूलनिवासी .रायबरेली में कहीं भी आजतक एक भी,अपवाद के रूप में भी,साम्प्रदायिक दंगे फसाद नही हुए हैं न कभी हों.1984 में एक भी सिख नही मारा गया.हिन्दू-मुस्लिम-सिख यहां सभी एक होकर रहते हैं.
मेरा घर काफी बडा बना हुआ है,एक कोठी बंगले की तरह.मैं आपको अपने घर में स्थायी सदस्य के रूप में आने का निमंत्रण देता हूँ. मेरे घर में आप आजीवन रहें.जैसे मैं घर का मालिक, वैसे आप भी मेरे घर की मालिक.
इस्लाम में कोई भी दूसरे की सज़ा अपने ऊपर ले सकता है.जो सज़ा अपको कठमुल्लों ने दी है वह मुझे दे दें.आपको माफ कर दें. मैं आपके लिए मौत का फतवा झेलने को तैयार हूँ.कठमुल्ले मेरी जान ले लें और आपको क्षमा कर दें. मैं आपको अपना मित्र मानता हूँ. कृपया मेरे घर शीघ्र पधारें. सद्भावना सहित ...
आचार्य रजनीकांत ,रायबरेली
यह पत्र मैने जस का तस छाप दिया है । जहाँ शब्दों को बोल्ड किया गया है वहाँ ध्यान दें ।घर छोटा भी हो तो क्या ? मित्र मानते हैं तो अपनी गरीबी में भी उसका साथ दे सकते हैं । माफ करें और क्षमा करेंजैसी बाते ये सिद्ध कर रहीं हैं कि महाशय शायद तस्लीमा को समझे ही नही । कठमुल्लों से क्षमा की अपील ? क्या कहना चाह्ते हैं ये ? ये प्रेम-निमंत्रण है क्या ? महाशय खुद को हिन्दी के कवि लेखक वगैरह कह रहे हैं ,क्या यही है उनकी समझ ।
तस्लीमा जी,
नमस्कार !
मैं बंगाली भाषा नही जानता.इसलिए मैं हिन्दी में पत्र लिख रहा हूँ. इस विवशता को क्षमा करने की कृपा करें.
मैं हिन्दी का कवि,उपन्यासकार,नाटककार हूँ,रायबरेली का मूलनिवासी .रायबरेली में कहीं भी आजतक एक भी,अपवाद के रूप में भी,साम्प्रदायिक दंगे फसाद नही हुए हैं न कभी हों.1984 में एक भी सिख नही मारा गया.हिन्दू-मुस्लिम-सिख यहां सभी एक होकर रहते हैं.
मेरा घर काफी बडा बना हुआ है,एक कोठी बंगले की तरह.मैं आपको अपने घर में स्थायी सदस्य के रूप में आने का निमंत्रण देता हूँ. मेरे घर में आप आजीवन रहें.जैसे मैं घर का मालिक, वैसे आप भी मेरे घर की मालिक.
इस्लाम में कोई भी दूसरे की सज़ा अपने ऊपर ले सकता है.जो सज़ा अपको कठमुल्लों ने दी है वह मुझे दे दें.आपको माफ कर दें. मैं आपके लिए मौत का फतवा झेलने को तैयार हूँ.कठमुल्ले मेरी जान ले लें और आपको क्षमा कर दें. मैं आपको अपना मित्र मानता हूँ. कृपया मेरे घर शीघ्र पधारें. सद्भावना सहित ...
आचार्य रजनीकांत ,रायबरेली
यह पत्र मैने जस का तस छाप दिया है । जहाँ शब्दों को बोल्ड किया गया है वहाँ ध्यान दें ।घर छोटा भी हो तो क्या ? मित्र मानते हैं तो अपनी गरीबी में भी उसका साथ दे सकते हैं । माफ करें और क्षमा करेंजैसी बाते ये सिद्ध कर रहीं हैं कि महाशय शायद तस्लीमा को समझे ही नही । कठमुल्लों से क्षमा की अपील ? क्या कहना चाह्ते हैं ये ? ये प्रेम-निमंत्रण है क्या ? महाशय खुद को हिन्दी के कवि लेखक वगैरह कह रहे हैं ,क्या यही है उनकी समझ ।
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